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दीपमालिकाओं के प्रकाश-पुंज में उसका अद्वितीय रूप सुरलोक के तेजपुंज जैसा प्रतीत हो रहा था।
प्रथम प्रहर बीत रहा था। स्थूलभद्र नहीं आए। सभी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। देवी कोशा को क्षण-क्षण भारी लग रहा था।
दूसरा प्रहर बीत रहा था। इतने में ही स्थूलभद्र आ गए। आते ही कहा- 'देवी! आज तो बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी?'
'नारी के भाग्य में यही लिखा है।' कोशा ने हंसते हुए कहा।
'आज इक्कीसवां दिन है। मुझे यह याद है। कोशा! चलो, रात्रि फिर नहीं रहने वाली है।'
'आज रात स्थिर रहेगी। आप यहीं बैठें। आज मेरे मन में अनेक विचार उमड़ रहे हैं। महात्मा सिद्धरसेश्वर ने मेरे यौवन को आयुष्य प्रदान किया है, किन्तु मेरी साधना को आयुष्य देने वाली आप ही हैं।'
'साधना को?'
'हां, मेरी इच्छा है कि हम एक भव्य चित्रशाला का निर्माण करें। उस चित्रशाला में नृत्य, संगीत और कामशास्त्र के प्रत्येक अंगों का चित्र अंकित कर एक नये शास्त्र की रचना करें।'
'देवी तुम्हारी कामना भव्य है, किन्तु यह श्रमसाध्य है। इसके लिए तीन-चार वर्षों तक कठोर साधना अपेक्षित है। हम ऐसी चित्रशाला के निर्माण के लिए प्रयास करेंगे और इसके लिए सम्राट् के शिल्पी का सहयोग लेंगे।'
___ 'महात्मा सिद्धरसेश्वर के प्रयोग से मेरे मन में उत्साह उमड़ रहा हैं' कहते-कहते कोशा खड़ी हो गई, 'क्या आपने मेरे में कोई परिवर्तन नहीं देखा?'
'देख रहा हूं।' 'क्या?'
'यही कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊंगा, तब भी तुम्हारी छवि मुझे ऐसी ही प्रत्यक्ष होगी-कहकर स्थूलभद्र हंसने लगा।
'आप व्यंग्य कर रहे हैं'-कहती हुई कोशा आगे चल पड़ी।
'क्या मैं कभी बूढ़ा नहीं होऊंगा?' स्थूलभद्र ने कोशा का हाथ दबाते हुए कहा। आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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