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________________ अब सुकेतु निर्भय हो गया था। जहां जाना था वहां वह आ पहुंचा था। वह बोला-'नियत स्थान के बिना रथ नहीं रुकता, प्रिये!' 'तू कौन है?' 'क्या देवी ने मुझे अभी तक नहीं पहचाना?' कहकर सुकेतु ने अश्वों की लगाम गजेन्द्र में हाथ में दी। कोशा ने पीछे देखा। सुकेतु दुष्ट विचारों से प्रेरित हो हंसकर बोला'देवी! मैं आपके रूप का पुजारी रथपति सुकेतु हूं।' 'सुकेतु ?' 'हां, मगध राज्य में एक ही वीर पुरुष है जो आपका प्रियतम बनने के लिए लालायित हो रहा है।' माधवी की आंखों के सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट हो गई। उसका हृदय धड़कने लगा। कोशा ने रोषभरे स्वरों से कहा- 'सुकेतु! यह हास्य तुम्हारे लिए भारी पड़ेगा।' सुकेतु व्यंग्यभरी दृष्टि डालते हुए बोला- 'देवी का परिहास कौन कर सकता है ?' 'तो फिर इस आचरण का अर्थ क्या है?' कोशा ने कहा। 'हृदय पर राज्य करने वाली प्रियतमा को एक विरागी ब्राह्मण के पंजों से छुड़ाकर उसे उचित गौरव प्रदान करना....' सुकेतु अपना वाक्य पूरा करे, उससे पूर्व ही कोशा ने तीखे स्वरों में कहा- 'दुरात्मा.......!' रथ की गति तेज हो गई। सुकेतु का हास्य पूर्ण हो, उससे पूर्व ही माधवी रथ से नीचे कूद पड़ी। कोशा चिल्ला उठी। सुकेतु आगे से पीछे आ बैठा। उसने सोचा-माधवी उछाले के कारण रथ पर से नीचे जा गिरी है। उसे संतोष हुआ। माधवी स्वेच्छा से नीचे गिरी थी। वह उठी और शिविर की ओर दौड़ पड़ी। १२५ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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