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इष्टोपदेशकी टीकाके कर्ता पण्डितवर आशाधर हैं । उन्होंने अनगार-धर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका वि० सं १३०० में समाप्त की थी, और यही शायद उनका अन्तिम ग्रन्थ था । अतः वे विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिके विद्वान् हैं। उनके बनाये हुए वीसों ग्रन्थ हैं और उनमेंसे बहुतसे उपलब्ध भी हैं । वे अपने 'जिनयज्ञकल्प' नामक ग्रन्थमें जो वि० सं० १२८५ में बनकर समाप्त हुआ है-अपने उस समय तकके बनाये हुए जिन जिन ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं, उनमें इटोपदेश टीकाका भी नाम है । इससे मालूम होता है कि यह टीका १२८५ से पहले बनी है। यह टीका उन्होंने सागरचन्द्र मुनिके शिष्य विनयचन्द्रकी प्रेरणासे बनाई थी, ऐसा टीकाके अन्तिम श्लोकोंसे मालूम होता है। *
श्रीयुत प० पन्नालालजी बाकलीवालने जयपुरके किसी पुस्तकालयकी प्राचीन प्रतिसे इस ग्रन्थकी प्रेसकापी की थी। उसी परसे यह ग्रन्थ छपाया गया है।
३ नीतिसार और ४ श्रुतावतार । दिगम्बरजैनसम्प्रदायमें इन्द्रनन्दि नामके अनेक आचार्य और भट्टारक हो गये हैं। उनमेंसे एक इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके और एक नीतिसारके कर्ता हैं । दोनोंके कर्ता एक नहीं मालूम होते ! हमारी समझमें श्रुतावतारके कर्ता तो वे इन्द्रनन्दि हैं, जिनका उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसार कर्म-काण्डकी ३९६ वी गाथामें गुरुरूपसे किया है:
वरइंदनंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं। सिरिकणयनंदिगुरुणा सत्तहाणं समुद्दिटुं ॥ ३९६॥ लेखान्तरों में यह सिद्ध किया जा चुका है कि नेमिचन्द्रका समय विक्रमकी ११ वीं शताब्दि है । अतः श्रुतावतारके कर्ता लगभग इसी समयके आचार्य हैं । नीतिसारके कर्ता दूसरे इन्द्रनन्दि जान पड़ते हैं, जो नेमिचन्द्रसे पीछे हुए हैं; क्योंकि वे नातिसारके ७० वें श्लोकमें आचार्य नेमिचन्द्रका उल्लेख करते हैं । नीतिसारकी रचनासे और मुनिधर्मसम्बन्धी उपदेशोंसे भी मालूम होता है कि वह ग्यारहवीं ही नहीं बल्कि १३ वीं शताब्दिके भी बादका बना हुआ ग्रन्थ होगा ।
नीतिसारका संशोधन जयपुरकी एक प्रतिसे और एक कनड़ीमें छपी हुई पुस्तकपरसे कराया गया है । श्रुतावतार शोलापुरकी जैन-बुकडिपो द्वारा प्रकाशित मराठीटीकायुक्त पुस्तकपरसे छपाया गया है ।
* पण्डित आशाधरके विषयमें विशेष जाननेके लिए हमारी लिखी हुई 'विद्रद्रत्नमाला' के द्वितीय लेखको पढ़िए ।
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