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जैनधर्म में आस्तिकता के तत्त्व
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नाम लेना व्यर्थ है क्योंकि अदृष्ट को भी तो ईश्वर ही उत्पन्न करता है । अनादिकाल से जड़ और चेतन पदार्थ अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप स्वभाव के कारण सापेक्ष होकर स्वयं परिणमन करते हैं । इसके लिये किसी भधिष्ठाता एवं नियंत्रक की जरूरत ही क्या है ? नित्य एक और समर्थ ईश्वर से समस्त क्रमभावी कार्य युगपत् उत्पन्न हो जाने चाहिये । सहकारी कारण भी तो ईश्वर को ही उत्पन्न करता है। सर्व व्यापक ईश्वर में तो क्रिया भी नहीं हो सकती। उसकी इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति भी नित्य हैं, अतः क्रम से कार्य होना कथमपि संभव नहीं है । जगत्-उद्धार के लिये यदि ईश्वराश्रित रहा जाए तो मानवीय पुरुषार्थ एवं सदाचरण भी व्यर्थ हो जाता है। यदि सृष्टि को प्रयोजनहीन मानें तो फिर यह निरुद्देश्य एवं पागलपन जैसा कार्य है । स्याद्वादमंजरी एवं प्रमेय कमल मार्तण्ड में ईश्वरवाद का खंडन करने के लिये अनेकों तर्क दिये गये हैं। ईश्वर का न तो प्रत्यक्ष होता है न अनुमान से ही उसको जान सकते हैं। न्याय का यह कथन कि चूंकि "हर वस्तु का कर्ता होता है, इसलिये इस संसार का भी कर्ता होगा", न्याय-संगत नहीं है क्योंकि आकाश जैसे वस्तु को न्याय नित्य तो मानता है किन्तु किसी से उत्पन्न नहीं मानता ! फिर यदि ईश्वर अशरीरी है तो किसी चीज को कैसे उत्पन्न कर सकता है ?
ईश्वर के जिन गुणों का भी उल्लेख है, वे भी असंगति उत्पन्न करते हैं । जैसे ईश्वर को सर्वशक्तिमान कहा जाता है। इस दृष्टि से वे सभी वस्तुओं के उत्पन्न कर्ता माने जायेंगे किन्तु दैनिक जीवन में देखते हैं कि बहुत सारे पदार्थ जैसे घर, बर्तन आदि मानव-कृत हैं, ईश्वर-कृत नहीं। यह कहना कि ईश्वर सृष्टि की अनेक योजनाओं को समन्वित करता है, कोई खास अर्थ नहीं रखता। संसार में भी अनेक मानव मिलन अपने-अपने कार्यों में एक विशेष कार्य के लिये सामंजस्य पैदा करते हैं। फिर ईश्वर को सर्वथा पूर्ण मान लेने का अर्थ है कि वे कभी अपूर्ण थे जो आज पूर्ण हुए।
लेकिन चूंकि जैन-दर्शन स्रष्टा ईश्वर को नहीं मानता है इसलिये इसको नास्तिक मान लेना गलत होगा । असल में जैन धर्म ईश्वर में विश्वास करता है, भले ही उसके ईश्वरत्व की कल्पना भिन्न है। विश्व के वैविध्य की व्याख्या करते हुए जैन-दर्शन काल, स्वभाव, नियम, कर्म और उद्यम नामक पंच तत्वों के संयोग को स्वीकार करता है। इन्ही तत्वों के विभिन्न संयोग से देवत्व प्रकट होता है जिसे पंच-परमेष्ठि कहा गया है। जैन दर्शन प्रत्येक आत्मा को अपनी स्वतंत्र सत्ता के साथ मुक्त होने की कल्पना करता है । ये मुक्त जीव ही जैन-धर्म के ईश्वर हैं। इन्हीं में से कुछ मुक्तात्माओं को जिन्होंने संसार को मुक्ति-मार्ग बतलाया है, जैनधर्म तीर्थकर मानता है। चूंकि वह चार घातिय कर्मों का नाश कर देता है, इसलिये उसे अरिहंत
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