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जैन धर्म में आस्तिकता के तत्त्व
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जैन धर्म में अस्तिकता के तत्त्व हैं या नहीं, इसके पूर्व हमें "आस्तिका अर्थ जान लेना चाहिये। मनु के अनुसार "नास्तिको वेद निन्दकः । " जो वेद को आप्तमानकर उसे नित्य और अपौरूषेय मानकर उसे परम सत्य मान लेता है उसे आस्तिक कहते हैं । इस दृष्टि से दर्शन कहे जायंगे, चाहे सांख्य और मीमांसा की तरह क्यों न हों । किन्तु पाणिनि की परिभाषा अधिक जाती है जिसके अनुसार जो परलोक में विश्वास करता इसके विपरीत है, वह नास्तिक । इस दृष्टि से चार्वाक को के अलावा जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक माने जायंगे उनका विश्वास है । परलोक का कर्मवाद के साथ अनुस्यूत सम्बन्ध है | हरिभद्र ने षड्-दर्शन समुच्चय में पाणिनि की परिभाषा में किंचित् संशोधन करके नास्तिक उसे बताया है जो आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है । इस दृष्टि से भी केवल लोकायत दर्शन ही नास्तिक माना जाएगा, हां बौद्धों के अनात्मवाद के कारण कुछ शंका हो सकती, हालांकि वे भी पंच-स्कन्ध को स्वीकार करते ही हैं । लेकिन जन साधारण आस्तिक का अर्थ ईश्वरवादी और नास्तिक का निरीश्वरवादी लगाते हैं । इस दृष्टि से भले ही जैनदर्शन पर ठीक से विचार करना आवश्यक है ।
षड्-दर्शन ही आस्तिक वे निरीश्वरवादी ही
शास्त्र सम्मत मानी
वह आस्तिक, जो छोड़कर षड्-दर्शन क्योंकि कर्मफल में
ईश्वरवाद में ईश्वरवाद को जन्ममात्र के प्रतिनिमित्त मानकर उसे कर्त्ता, धर्त्ता ओर हर्त्ता के अलावा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक आदि विभूतियों से विभूषित माना गया है । यानी इस लोक में जो स्थान प्रभुसत्ता सम्पन्न राजा का है, वही परलोक में परमेश्वर का है। वह अनादिकाल से क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासनाओं से सर्वथा अछूता है । उसका ऐश्वर्यं अविनाशी है । इसलिये जब संसार में अनन्त जड़ और चेतन पदार्थ, अनादिकाल से स्वतंत्र सिद्ध हैं, जब ईश्वर ने भी असत् से किसी भी एक सत् पदार्थ को उत्पन्न नहीं किया, तब एक सर्वाधिष्ठाता ईश्वर मानने की जरूरत ही क्या है ? आप्त-परीक्षा में कहा ही गया है—
न स्पृष्टः कर्मभिः शाश्वद् विश्व दृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपाय सिद्धस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ॥
ऐसा ईश्वर मानने में जनों को कई कठिनाइयां हैं। यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं करूणावान् दोनों है तो फिर संसार में दुःख क्यों है ? अदृष्ट का
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