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________________ ३८ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन तैयार करना, फिर उसकी संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद देना। पाद टिप्पण तो इतने प्रशस्त हैं कि कोई इनकी प्रामाणिकता पर प्रश्न उठा ही नहीं सकते। ___ आगम संपादन का कार्य भारतीय विद्या के क्षेत्र में न वेद का हुआ है न त्रिपिटक का। वेद के कई संस्करण निकले हैं, कुछ भाष्य भी हैं, आर्य समाज ने किसी तरह का हिन्दी अनुवाद भी उपस्थित किया है किन्तु एक जगह वेद के विभिन्न पाठों का कार्य अभी हो नहीं पाया है। भिक्षु जगदीश काश्यप ने पाली संस्थान से सम्पूर्ण त्रिपिटक का प्रकाशन जरूर कराया है लेकिन उसके साथ संपादन, संस्कृत एवं हिन्दी छाया आदि आदि का कार्य बाकी है। आचार्य तुलसी ने एक ही साथ ये सारे काम कर लिये। अतः यह सचमुच अपूर्व कार्य हुआ। यही कारण है कि पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास, पं० दलसुख मालवणिया, श्री जिनविजयजी महाराज आदि के मानस एवं हृदय में आचार्य तुलसी के इस आगम कार्य के प्रति प्रशस्ति के भाव जगे जो पहले उपहास एवं उपेक्षा के थे। इस आगम कार्य के द्वारा उन्होंने न केवल अपने तेरापंथ समाज का बल्कि सम्पूर्ण जैन समाज को गौरवान्वित किया। आचार्य तुलसी द्वारा आगम का उद्धार वस्तुतः राम द्वारा अहिल्या का ही उद्धार जैसा कार्य है। दूसरी बात यह है कि इसे साम्प्रदायिक संकीर्णता से भी अलग रखने की कोशिश की गयी है। अपने सम्प्रदाय के भी मत दिये हैं, लेकिन दूसरे सम्प्रदायों के मतों को भी उसी जगह बता दिया गया है। वैदिक एवं बौद्ध ग्रन्थों के भी तुलनात्मक उद्धरण पाद-टिप्पण में इतने प्रभूत हैं कि संपादनकार के वैदुष्य से अभिभूत होना स्वाभाविक है । तीसरी बात है कि आगम जो अब-तक दुरूह होकर प्राकृत रूपी शिव की जटाओं में उलझा हुआ था उसे प्रत्येक शब्द के अर्थ, संस्कृत छाया और सबसे अधिक हिन्दी अनुवाद देकर जनमानस की पहुंच के अन्दर कर दिया गया है। जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरित मानस की रचना संस्कृत के बदले जन भाषा हिन्दी में की, आचार्य तुलसी ने भी इसे करोड़ोंकरोड़ हिन्दी भाषा भाषियों के लिये सुलभ कर दिया। एक महत्त्व को बात यह है कि मूल से उन्होंने सबों का परिचय करा दिया। मूल आगम के छप जाने से अब जैन तत्त्व ज्ञान एवं जैनाचार के विषय में भ्रांतियां होने की कम गुंजाइश है। इससे साम्प्रदायिक विभेद भी घटने चाहिये । दिगम्बर-श्वेताम्बर, स्थानकवासी-मंदिर मार्गी आदि के भेद आगम में नहीं हैं अतः इन भेदों को भुला कर मूल को पकड़ना चाहिये। जैन धर्म का मूल है अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह । कर्मकांड आदि तो बाह्य आवरण हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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