________________
जैन - न्याय में हेतु - लक्षण : एक अनुचिन्तन
३. जैन न्याय में हेतु का स्वरूप
हेतु अनुमान का आधार स्तम्भ है। हेतु विहीन अनुमान अनुमान नहीं, कल्पना है । किन्तु यक्ष प्रश्न है कि हेतु का स्वरूप क्या है ? विभिन्न दार्शनिकों ने हेतु के एक लक्षण से लेकर द्वि, त्रि, चतुः, पंच, षड् और सप्त लक्षण तक भी माने हैं । अक्षपाद ने साध्य को सिद्ध करने वाले साधन को हेतु कहा है । वात्सायन ने भाष्य में स्पष्टीकरण करते हुए साध्य ( पक्ष ) और साधर्म्य उदाहरण ( सपक्ष ) में धर्म (साधन) के सद्भाव तथा वैधर्म्य उदाहरण ( विपक्ष ) में उसके असद्भाव का प्रतिसंधान कर साध्य को सिद्ध करने वाला साधन ही हेतु है । उद्योतकर ने भी न्याय - सूत्र एवं भाष्य दोनों का समर्थन ही किया है ।
(क) द्विलक्षण- त्रिलक्षण
गोतम, वात्स्यायन और उद्योतकर ने हेतु को द्विलक्षण- त्रिलक्षण माना है । न्यायवर्तिक में उद्योतकर ने प्रतिसंधान का अर्थ साध्य में व्यापकत्व और उदाहरण में संभव कहा है जिससे हेतु द्विलक्षण- त्रिलक्षण प्राप्त होता है । जब उदाहरण के साथ साधर्म्य है तो विपक्ष को स्वीकार न करने से द्विलक्षण हेतु होता है । हेतु का साध्य में व्यापक, उदाहरण में विद्यमान और अनुदाहरण में अविद्यमान होना चाहिए ऐसा करने से त्रिलक्षण हेतु होता है । गौतम के " त्रिविधम् सूत्रम् की व्याख्या करते हुए उद्योतकर ने हेतु को प्रसिद्ध, सत् और असंदिग्ध कहकर प्रसिद्ध से पक्ष में व्यापक, सत् से सजातीय में रहने वाला और असंदिग्ध से सजातीय अविनाभावि बताकर हेतु को त्रिलक्षण सिद्ध किया है ।
आरंभ में हेतु को
इससे यह प्रतीत होता है कि न्याय - परंपरा में द्विलक्षण और त्रिलक्षण माना गया है । प्रशस्तपाद ने काश्यप की दो कारिकाओं के अनुसार लिंग और अलिंग का स्वरूप बताते हुए हेतु को त्रिलक्षण माना है । यह काश्यप ही कणाद का नामांतर है । इस प्रकार गौतम से भी पूर्व हेतु का त्रिलक्षण सिद्धांत हम वैशेषिक में पाते हैं जिसकी विशद व्याख्या प्रशस्तपाद ने की है । सांख्य कारिका की माठर वृत्ति' और १. गौतम, न्याय सूत्र, १११ ३४, ३५ उदाहरण – साधर्म्यात् साधनं हेतुः । तथा वैधर्म्यात् ।
२. वात्स्यायन, न्याय भाष्य, १1१।३४-३५
३. उद्योतकर, न्याय वार्त्तिक, १ १ ३४, पृ० ११९
२९
४. प्रशस्तपाद भाष्य, चौखंभा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, १९२३, पृ० १०० ५. सांख्य कारिका ( ईश्वर कृष्ण ), माठर वृत्ति, चौ० सं० सिरीज,
वाराणसी, १९१७, का० ५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org