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जैन विश्वभारती की वर्णमाला
जिस प्रकार वर्ण के बिना शब्द, शब्द के बिना वाक्य, वाक्य के बिना छंद का विधान नहीं होता है, उसी प्रकार महान से महानतम उद्देश्यों की साधना न्यूनतम "आचार-संहिता" के बिना असम्भव हो जाती है। दूसरे शब्दों में, नींव के पत्थर के बिना महल के गुम्बद और कंगूरों की कल्पना दिवास्वप्न होती है, यथार्थ नहीं। जिस प्रकार वर्णमाला किसी भी व्याकरण का आधार और आरम्भ-तत्त्व है उसी प्रकार किसी भी संस्था के उद्देश्यों के कार्यान्वयन के लिए उसकी वर्णमाला पहले तय करनी चाहिए, अन्यथा बहुत सारे प्रयत्न निष्फल होते हैं, दिग्भ्रम तो होता ही है।
जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय कोई धर्मसंघ नहीं है, यह सारस्वतसाधना का तीर्थ है। सत्य की साधना और सत्य का अनुसंधान ही इसका अभीष्ट है-वन्दे सच्चं । सत्य न तो प्राची के हाथ बिका है, न प्रतीची के हाथ । इस पर न सुकरात का स्वाधिकार है, न शंकर का सर्वाधिकार । आचार्य हरिभद्र के शब्दों में यहां न महावीर के लिए ही राग है, न कपिल के लिए द्वेष "पक्षपात न में वीरो न रागादि कपिलादिषु ।" सारस्वत-साधना इस दृष्टि से धर्म-साधना भी है और भगवत्-साधना भी, क्योंकि यह सत्य की साधना है । यह न किसी व्यक्ति की मर्यादा में कैद हो सकता है, न किसी सम्प्रदाय या किसी ग्रन्थ के खूटे से बंध सकता है। असल में सारस्वत-साधना गंगा की सदाप्रवाहिनी अविरल जलधारा है जिसे किसी ग्रन्थि से बांधना साक्षात् सरस्वती का अपमान है । जिस तरह बंधुआ मजदूर की अस्मिता नहीं होती उसी प्रकार बंधा हुआ ज्ञान ज्ञान नहीं, प्रचारतंत्र है। इसलिए तो कहा गया है-“सा विद्या या विमुक्तये।" लेकिन जो स्वयं मुक्त नहीं हो वह मुक्ति का मार्ग कैसे प्रशस्त करेगा ? इसलिए भारती की साधना व्यक्ति और सम्प्रदाय आदि से मुक्त होनी चाहिए । विचार जब किसी व्यक्ति की मर्यादा में कैद हो जाता है तो वह वाद बन जाता है, विचार जब किसी धार्मिक आग्रह पर सवार होता है, तो वह सम्प्रदाय बन जाता है. विचार जब किसी धर्मसंघ या राजतंत्र की दासी बन जाता है तो वह निस्तेज और निवीर्य हो जाता है।
यही कारण है कि आचार्य तुलसी ने धर्मसंघ के सर्वोच्च अनुशास्ता रहते हुए भी "जैन विश्वभारती संस्थान'' को धर्मसंघ से स्वतंत्र रक्खा । अवश्य ही वे विश्वविद्यालय के भी अनुशास्ता के रूप में इसको नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग-दर्शन देते रहेंगे किन्तु संस्था की स्वायत्तता ही इसका
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