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________________ महावीर और गांधी महावीर और गांधी भले ही दो शरीर, लेकिन एक मन और एक आत्मा थे । वे दोनों ही एक धातु के दो खंड थे। मेरी अदना अकल में तो महावीर पच्चीस सौ वर्ष के पूर्व गांधी और गांधी बीसवीं शताब्दी के महावीर थे । यदि हम आवतारवाद को मानें तो भगवान महावीर इस युग में गांधी के रूप में अवतरित हुए---संभवामि युगे युगे। मैं तो विनम्रता पूर्वक कहूंगा कि गांधी जैन धर्म के २५ वें तीर्थकर थे । महावीर और गांधी इतिहास-पुरुष ही नहीं काल पुरुष थे । न महावीर क्षत्रिय थे, न बापू वैश्य, न महावीर वैशाली के थे, न गांधी गुजरात के । इसलिए महावीर को जैन और गांधी को हिन्दू मानना भी निरर्थक है । महावीर और गांधी केवल व्यक्ति ही नहीं अपितु विचार भी थे । विचार जब किसी व्यक्ति की मर्यादा में बंध जाता है तो वह वाद बन जाता है, विचार जब किसी धार्मिक आग्रह पर सवार होता है तो सम्प्रदाय हो जाता है । महावीर और गांधी की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उनके विचारों में जकड़न नहीं थी, वचन में आग्रह नहीं था, व्यवहार में आसक्ति नहीं थी। असल में दोनों ने धर्म के बाह्य कलेवर को गौण, किन्तु धर्म चेतना पर ज्यादा बल दिया। जैन-धर्म, इसी कारण बौद्ध, इस्लाम और इसाईयत की तरह धर्म-विस्तार में नहीं गया, गांधी ने भी किसी को हिन्दू धर्म में दाखिल करने का लाभ नहीं रखा । दोनों ने धर्म के विस्तार में नहीं, अपितु इसकी गहराई में दिलचस्पी दिखाई एवं धर्म-चेतना को परिपुष्ट किया । धर्म-चेतना के मुख्य दो ही लक्षण हैं, जो वेदव्यास ने अठारही पुराण के सार-सर्वस्व रखा था-"परोपकाराय पुरायाय पापाय परपीड़नम्" जैन परम्परा की ऐतिहासिक भूमिका एवं भगवान महावीर के समस्त सिद्धांतों का सार-सर्वस्व इन्हीं दो सिद्धांतों पर आधारित है । लेकिन धर्म-चेतना के ये दो भाव-तन्व--"परोपकार को पुराय मानना और परउपकार को पाप समझना"-शून्य में अवस्थित नहीं रहते । देशकाल की आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त धर्म-चेतना के दोनों तत्त्व व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में मूर्तमान होने चाहिए। भगवान महावीर के समय भी समाज में ऊंच-नीच के जातिभेद, अस्पृश्यता, नारी-उपेक्षा, कर्मकांड और यज्ञीय-हिंसा आदि, धर्म के ऊपरी कलेवरों ने महावीर की धार्मिक चेतना को चुनौती दी थी और उन्होंने उन्हें स्वीकार करते हुए उन दुर्गुणों के विरुद्ध जेहाद छेड़ कर धार्मिक चेतना को परिपुष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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