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जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
प्रथम "निरपेक्ष नैतिक मूल्यों में श्रद्धा" (Faith in the absolute values ) अध्यात्म की निष्ठा है । शाश्वत नैतिक मूल्यों को मानने से सब तरह के लाभ हैं, उसे तोड़ने से सब जगह हानि है । नैतिक मूल्यों में अवसरवादिता नैतिकता को तो कमजोर करती ही है, अध्यात्म को भी कलंकित करती है । दूसरी आध्यात्मिक निष्ठा है— मृत्यु के बाद भी जीवन की अखंडता को स्वीकार करना । मृत्यु से जीवन खंडित नहीं होता - चाहे वह सूक्ष्म रूप में रहे या स्थूल रूप में, निराकार या साकार, देहधारी या देहविहीन । जीवन अखंड है। जब पदार्थ या ऊर्जा अनश्वर है तो आत्मा की अमरता भी स्वतः सिद्ध है । जन्म मरण से आत्मा पर प्रभाव नहीं पड़ता । वासांसि जीर्णानि यथा विहाय । अध्यात्म की तीसरी निष्ठा है- "प्राणिमात्र की एकता और पवित्रता ।" जब सब प्राणियों में किसी न किसी रूप में चैतसिक-केन्द्र है, फिर उसकी एकता और पवित्रता में विश्वास करना अध्यात्म की पहचान है । अध्यात्म की ater आधार - froठा है, विश्व में व्यवस्था और बुद्धि के प्रति आस्था | इसी का अर्थ है, ईश्वर का नाम देना या परमेश्वर पर श्रद्धा | अध्यात्म की पांचवी श्रद्धा है कि मानव-जीवन में पूर्णता का अनुभव हो सकता है । भले ही पूर्ण मानव हमने नहीं देखे लेकिन मानव की पूर्णता में विश्वास रखना एक आध्यात्मिक निष्ठा है ।
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अध्यात्मवादियों का दोष यही है कि उनके अनुसार " अध्यात्म-ज्ञान" पूर्ण हो चुका है । उसमें अब किसी तरह की प्रगति शेष नहीं रही । विज्ञान के दोष अनुभव से सुधारे जाते हैं । टालोमी का दोष कोपरनिकस एवं न्यूटन का आइंस्टीन ने सुधारा । उसी प्रकार अध्यात्म जगत् में प्रविष्ट दोषों का निराकरण होना चाहिए । दुर्भाग्य से अध्यात्म-साधना के नाम पर स्वार्थ ऊपर आ गया है । श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद ने नृसिंह भगवान से कह दिया था - " बहुधा देव और मुनि अपनी ही मुक्ति की कामना करते और विजन अरण्य में मौनादि के आधार से मुक्ति ले मुक्ति का आभास कर लेते । लेकिन मैं इन दीनजनों को छोड़ अकेला मुक्त होना नहीं चाहता ।" संक्षेप में जिस प्रकार 'मेरा घर' 'मेरा पुत्र' आदि अपने स्थूल स्वार्थवाद हैं, उसी प्रकार अध्यात्म-जगत् में " अपनी मुक्ति" की बात कहना वदतोव्याघात है, क्योंकि "मैं" का लोप ही मुक्ति का साधन है । यदि इस साधन पर एक का ही आधिपत्य रखते हैं तो "मैं" दृढ़ होता है और दूसरे सभी अज्ञानी रह जाते हैं । संक्षेप में व्यक्तिगत-मुक्ति की कल्पना का परिष्कार करना होगा । "मैं" की जगह " हम " को लाना होगा । इसी को "सर्वमुक्ति", "बोधिसत्त्व" या "सामूहिक मुक्ति" की कल्पना कहते हैं । यदि " अहंता" या " ममता " का त्याग ही मोक्ष है तो यह स्वाभाविक है । सांख्य में भी इसी की साधना के लिए 'नास्ति', 'ना मे' और "न अहं" आदि उक्तियां बतायी गयी हैं । अतः
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