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विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय
चाहिये, यह तो एक प्रकार का धार्मिक विश्वास जैसा ही है। इस तथ्य को हाइजनवर्ग ने अपनी पुस्तक (Physics and Beyond, Encounters and Conversations, Harper end Row, 1971) में अच्छी तरह प्रतिपादित किया है।
डा० रेनर जानसन जैसे विश्व विख्यात पदार्थ वैज्ञानिक ने यह स्पष्ट कर दिया कि पाश्चात्य जगत् में प्रचलित वैज्ञानिक भौतिकवाद की मान्यताएं आज उतनी विश्वसनीय नहीं रहीं क्योंकि गर्भाशय में जीव-विकास और स्मृति आदि के तथ्यों की संतोषप्रद व्याख्या नहीं हो पाती है। रेडियोधर्मिता की सक्रियता एवं प्रकाश पुंज में व्यवधान आदि की बातें इसको सिद्ध करती हैं । उन्होंने तो बताया कि सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं में किसी प्रकार की चेतना परिलक्षित होती है (Behind all the phenomena of Nature, psychical fields are in existence) विज्ञान कोई गवाक्षहीन-जगत या परिपूर्ण-तत्त्व नहीं है। इसीलिये आज "परामनोविद्या" से प्राप्त अनुसंधानों को भी ध्यान से देखना चाहिये जिस पर पिछले ५० वर्षों में बड़े-बड़े वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिकों ने अन्वेषण एवं प्रयोग किये हैं। इस सम्बन्ध में राइन, सोएल, कैरिंगटन , टेरिल, मर्फी आदि के नाम द्रष्टव्य हैं जिन्होंने इंद्रियेतर प्रत्यक्ष (Extra-Sensory Perception) जैसे अवधि-ज्ञान (clairvoyance or clairaudience), मनःपर्यय (Telepathy) आदि के अनेकों प्रयोग प्रदर्शित किये हैं। इनमें इंद्रियों की स्नावयिक-मांसपेशीयव्यवस्था के बिना भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त विशिष्ट पुरुषों की रहस्यानुभूतियों की भी व्याख्या करने में विज्ञान के प्रस्तुत उपकरण अक्षम रहते हैं।
विज्ञान और अध्यात्म का द्वन्द्व धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। विज्ञान ने १८ वीं शताब्दी पदार्थों की एकता (Unity of Matter) स्थापित करने में लगायी और उन्नीसवीं सदी में शक्तियों की एकता (Unity of Energy) स्थापित करने का उपक्रम हुआ। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब परमाणु के विद्युत्-किरणों का विखंडन-कार्य सम्पन्न हुआ तो पदार्थ और शक्ति (Matter and Energy) की एकता स्थापित हो गयी है। जीवन और अजीवन, जड़ और चेतन की सीमा-भूमि पर अभी तक अन्धकार के आवरण पड़े हुए हैं। हां, यह सीमा-रेखा इतनी क्षीण हो गयी है कि केवल प्रोटोप्लाज्म की बनावट में सिकुड़ गयी है । अब तो कृत्रिम गर्भाधान एवं “परखनली शिशु" के प्रयोगों ने इस विभाजन रेखा को और भी क्षीण कर दिया है। चेतन और अचेतन की सीमान्तक रेखा को समाप्त करने का पुरुषार्थ एक नवीन विश्व-दर्शन की प्रसव पीड़ा है।
लेनिन के समय ही विद्य त्-कण के आविष्करण के कारण ठोस एवं
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