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जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
उपसंहारः — दलाईलामा ने कहा कि अपनी जिह्वा के स्वाद के लिये निर्दोष प्राणियों का बध सचमुच एक सांस्कृतिक अपराध है । हर प्राणी को अपनी जान प्यारी होती है । फिर मांसाहार के बिना भी तो मनुष्य जीवित रह ही सकता है । जिस दिन खिड़की से एक मुर्गी को पकड़ने वाले से जान बचाने के लिये बेतरह परेशान होकर भागते देखा, गुरुदेव की करूणा जागृत हुई और उसी दिन से वे निरामिष आहारी बन गये । जार्ज बनार्डशा के अनुसार आध्यात्मिक मनोवृत्ति का व्यक्ति कभी भी मरे हुए प्राणियों का मांस नहीं खाएगा क्योंकि इसके बिना भी उसके जीवन की रक्षा की जा सकती है। अतः वैज्ञानिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं सौंदर्य बोध दृष्टियों से निरामिष आहार श्रेयस्कर है । भविष्य भी निरामिष आहार का ही है क्योंकि पृथ्वी की पांच अरब जनसंख्या को हम जिस भोजन पर पाल रहें हैं, वह संभव नहीं । बढ़ती हुई मानव आबादी यदि मांसाहार की ओर अधिक प्रवृत्त होगी तो पशुओं के लिये अधिक जगह चाहिये । आदमस्मिथ ने अपनी प्रख्यात पुस्तक "वेल्थ आफ नेशन्स" में कहा था कि पशुओं को खिला पिलाकर उन्हें अपने भोजन के लिये तैयार करना अत्यन्त अनुपयोगी है । मांसाहार पर पृथ्वी की इतनी आबादी को अधिक दिनों तक पालन करना मुश्किल है ।
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निरामिष आहार मानव को निसर्ग से जोड़ता है इसीलिये निसर्ग की रक्षा भी इससे जुड़ी हुई है । मनुष्यों का आहार जितना ही अधिक कन्द, फल, मूल, शाक-सब्जी पर आधारित होगा, पर्यावरण का संकट कम होता जाएगा। सभ्यता के नाम पर जब-जब और जहां-जहां हमने प्रकृति पर अत्याचार किये हैं, उस सभ्यता का नामोनिशान मिट गया है । पृथ्वी मरूभूमि में परिवर्तित हो गयी । वर्षा रूठ जाती है । भूमि क्षरण होने लगती है और मानव-अस्तिव का संकट बढ़ जाता है ।
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