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प्रकाशकीय
जीव-अजीव का शाश्वत अस्तित्व ही लोक के स्वरूप का आधार है। दर्शन के समग्र ज्ञान के लिए आवश्यक है जीव-अजीव के भेद की समुचित जानकारी एवं विवेचना। जैन दर्शन जीव-अजीव, मोक्ष, कर्म आदि की स्थिति से सम्पृक्त है एवं इन्हीं के इर्द गिर्द इसका ताना-बाना बना हुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक की संरचना महान् दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ के द्वारा दर्शनज्ञान के पिपासुओं के लिए एक अवदान स्वरूप है। जैन विद्या के छात्र-छात्राओं के लिए यह प्रकाशन जैन दर्शन के अध्ययन की कुंजी का कार्य सम्पादित करता
प्रकाशन में प्रयुक्त सामग्री एवं अन्यान्य मुद्रण-व्यय में असाधारण वृद्धि के बावजूद छात्रों पर अधिक अर्थ भार नहीं पड़े, इस दृष्टि से केवल अल्पानुपातिक मूल्य-वृद्धि की गई है।
जैन विश्व भारती संस्थान इस कृति के ग्यारहवें संस्करण को प्रस्तुत कर अपने आप में गौरव की अनुभूति करता है।
जैन विश्व भारती, लाडनूं
जनवरी, १९९५
ताराचंद रामपुरिया
मंत्री
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