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________________ ४२ जीव-अजीव भावों को जानता है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। मनःपर्यवज्ञानी समनस्क जीवों के मनोगत विचारों को स्पष्ट रूप से द्रव्यमन के सहारे जान सकता है। ५. केवलज्ञान-मूर्त-अमूर्त, सूक्ष्म-स्थूल आदि समस्त पदार्थ और समस्त पर्याय जिससे जाने जाते हैं, वह केवलज्ञान है। अज्ञान अज्ञान तीन प्रकार के हैं--मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंग-अज्ञान (अवधि-अज्ञान)। यहां अज्ञान शब्द में होने वाले 'नञ् समास' का अर्थ अभाव नहीं, पर कुत्सा है। प्रश्न--ज्ञान कुत्सित कैसे हो सकता है? उत्तर--ज्ञान निन्दित नहीं, पर मिथ्यात्व के सहयोग से ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है, नीच के सम्पर्क से उत्तम पुरुष भी नीच कहलाता है। ज्ञान और अज्ञान में सिर्फ पात्र का भेद है। पात्र के आधार पर ही ज्ञान के दो भेद किए गए हैं। यदि पात्र सम्यक्त्वी हो तो उसका ज्ञान ज्ञान कहलाता है। यदि पात्र मिथ्यात्वी हो तो उसका ज्ञान अज्ञान कहलाता है। वे दोनों ही ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से ही प्राप्त होते हैं, इसलिए दोनों ही उपादेय हैं, ग्रहण करने योग्य हैं। दोनों का ही गुण जानने का है। एक ऐसा भी अज्ञान है जो छोड़ने योग्य है। उस (अज्ञान) का अर्थ है, न ज्ञान--अज्ञान अर्थात् ज्ञान का आवरण। यह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है और इससे ज्ञान का विकास रुकता है। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंग-अज्ञान का अर्थ पूर्वोक्त मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के समान ही है। मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये दोनों विशिष्ट योगियों के होते हैं। वे (विशिष्ट योगी) कभी मिथ्यात्वी हो नहीं सकते। अतःअज्ञान के भेद सिर्फ तीन ही होते हैं, पांच नहीं। दर्शन सामान्य बोध--अनाकार उपयोग को दर्शन कहते हैं। किसी वस्तु को जानने के दो रास्ते हैं-एकरूपता, अनेकरूपता । जब हम एक वस्तु को एक ही रूप से जानते हैं तब हमारा ज्ञान सामान्य-ग्राही होने के कारण सामान्य बोध अर्थात् दर्शन कहलाता है। जब हम एक ही वस्तु को अनेक रूप से--भिन्न-भिन्न रूप से जानते हैं तब हमारा वही ज्ञान भिन्न रूपग्राही होने के कारण विशेष बोध अर्थात् ज्ञान कहा जाता है। दर्शन के चार भेद हैं--चक्षःदर्शन, अचक्षुःदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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