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दूसरा बोल
जाति पांच
2. एकेन्द्रिय ४. चतुरिन्द्रिय २. द्वीन्द्रिय १. पंचेन्द्रिय ३. त्रीन्द्रिय
चेतना आत्मा का लक्षण है। उसका विकास प्राणीमात्र में समान नहीं, किन्तु तारतम्य-युक्त होता है। विकास की पहली श्रेणी इन्द्रिय-ज्ञान है। विशिष्ट ज्ञान तो किसी में हो या न हो परन्तु इन्द्रय-ज्ञान तो अविकसित आत्मा में भी अवश्य होता है। उसका यदि अभाव हो तो जीव और अजीव में कोई भेद ही न रहे।
इन्द्रियों (त्वचा, जिह्वा, नाक, आंख और कान) के द्वारा जो जीव के विभाग होते हैं, उसे जाति कहते हैं। जाति शब्द का अर्थ सदृशता है; जैसे-गाय जाति, अश्व जाति । गाय जाति में काली, पीली, सफेद आदि समस्त गायों का समावेश होता है। अश्व जाति में विभिन्न प्रकार के समस्त अश्वों का समावेश होता है, वैसे ही एकेन्द्रिय-जाति में पृथ्वी, पानी अग्नि, वायु ओर वनस्पति के समस्त जीवों का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय-जाति में दो इन्द्रियवाले जीवों का, त्रीन्द्रिय में तीन इन्द्रियवाले जीवों का, चतुरिन्द्रिय में चार इन्द्रियवाले जीवों का और पंचेन्द्रिय में पांच इन्द्रियवाले जीवों का समावेश होता
इन्द्रिय वृद्धि का क्रम यह है कि एकेन्द्रिय जाति में एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है और द्वीन्द्रिय में जीभ, त्रीन्द्रिय में नाक, चतुरिन्द्रिय में आंख और पंचेन्द्रिय में कान--यों क्रमशः एक-एक इन्द्रिय बढ़ जाती है।
जिन जीवों के केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है, उन जीवों की जाति है--एकेन्द्रिय। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि।
__ जिन जावों के स्पर्शन तथा रसन-ये दो इन्द्रियां होती है, उन जीवों की जाति है--द्वीन्द्रिय। लट, सीप, शंख, कृमि, घुन आदि।
जिन जीवों के स्पर्शन, रसन तथा घ्राण-ये तीन इन्द्रियां होती हैं, उन जीवों की जाति है-त्रीन्द्रिय। चींटी, मकोड़ा, जूं, लीख, चीचड़ आदि ।
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