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________________ बाइसवां बोल १३५ भर के लिए किए जाते हैं। जो त्याग दो-चार वर्ष आदि की मर्यादा सहित किए जाते हैं, वे सब दसवें व्रत में समाते हैं। पौषध-व्रत-अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या तथा अन्य किसी तिथि में उपवास के साथ शारीरिक साजसज्जा को छोड़कर एक दिन-रात तक सावध प्रवृत्ति का त्याग करना पौषध-व्रत है। चौविहार उपवास के बिना पौषध-व्रत नहीं होता। तिविहार उपवास कर जो चार प्रहर या अधिक समय तक पौषध की तरह उपासना की जाती है, वह देशावकाशिक-व्रत होता है, पौषध-व्रत नहीं। वह (पौषध-व्रत) चौविहार उपवास के साथ ही हो सकता है। उसका समय चार प्रहर या आठ प्रहर का है। अतिथि-सविभाग-व्रत-साधु को शुद्ध दान देने की भावना रखना प्रत्येक श्रावक-श्राविका का कर्तव्य है। साधु के निमित्त कोई वस्तु बनाना, अपने लिए बनायी जाने वाली वस्तु में साधु के निमित्त कुछ अधिक बना लेना, यह दोषपूर्ण प्रवृत्ति है। अतः साधु को अशुद्ध दान देने का त्याग करना और निर्दोष दान देना अतिथि-संविभाग-व्रत है। व्रतों की उपयोगिता श्रावक के व्रतों का धार्मिक दृष्टि से तो महत्त्व है ही, किन्तु सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से भी उनका कम महत्त्व नहीं है। जैसे--- १. हिसा की भावना से परस्पर वैमनस्य बढ़ता है। उससे विरोधी भावना बलवती बनती है। उससे मानवता नष्ट होती है। अतः हिंसा त्याज्य है। श्रावक के पहले व्रत का उद्देश्य है--'मेत्ती में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणइ'--सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर-भावना नहीं है। २. समाज के सारे व्यवहार का आधार सत्य है। उसके बिना एक दिन भी काम नहीं चल सकता। लेन-देन के बिना काम नहीं चलता और वह विश्वास के बिना नहीं होता और विश्वास सत्य के बिना नहीं होता। इसलिए सत्य सदा अपेक्षित है। ३. दूसरों पर अधिकार जमाने, लूट-खसोट करने, डाका डालने और सैनिक आक्रमण करने से अशांति का वातावरण पैदा होता है। जनता तिलमिला उठती है। चारों ओर भय छा जाता है। अतः स्थायी शांति के लिए सभी अपराधों का त्याग करना सबके लिए अनिवार्य हैं। श्रावक के अस्तेय-व्रत की यह एक महती उपयोगिता है। चोरी सामाजिक विष है। समाज की उन्नति के लिए भी इस विष का नाश अपेक्षित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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