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________________ दूसरे के बारे में अपना दृष्टिकोण 'मुढात्मा यत्र विश्वस्तः, ततो नान्यद् भयास्पदम् । यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानमात्मनः । ।' जहां विश्वास करते हैं, उससे बड़ा कोई खतरा नहीं और जिसे खतरा समझते हैं उससे बड़ा विश्वास का कोई स्थान नहीं है । यह विपर्यय 'पर' के कारण चल रहा है। हमने 'पर' के प्रति, दूसरे के प्रति ऐसा दृष्टिकोण बना लिया कि जहां 'पर' आया वहां हमें खतरा दीखने लग जाता है और जहां 'स्व' आया वहां हमें कल्याण दीखने लग जाता है । 'स्व' और 'पर' के बारे में यह धरणा क्यों बनी ? कब और कैसी बनी ? कारण यही हो सकता है कि दूरी के कारण व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति ऐसा दृष्टिकोण बना लेता है। जहां अपनी बात आई वहां प्रियता और अप्रियता दोनों में से चुनाव हो जाता है । जब 'पर' की बात आई वहां भी चुनाव हो जाता है । ध्यान करने वाले व्यक्ति में चिंतन का परिष्कार होता है, चिन्तन बदलता है । दृष्टिकोण बदलता है । उसमें 'पर' के प्रति एक स्वतंत्रता की अनुभूति जागती है । दूसरे व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व का अनुभव करना एक बहुत बड़ी फलश्रुति है । कोई आदमी किसी के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, सही अर्थ में स्वीकार नहीं करता । ७३ पिता पुत्र को प्रिय मान लेता है पर उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता । वह स्वतंत्र होने की थोड़ी-सी भी बात करता है तो पिता तिलमिला उठता है । पति पत्नी के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता । मालिक नौकर के स्वतंत्र अस्तित्व को कैसे स्वीकार कर सकता है ? इसीलिए वह उसकी हर चाह पर नियंत्रण लगाना चाहता है। यह नियंत्रणों का विकास इस आधार पर हुआ कि हमें दूसरे का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है सिद्धान्तत: मान्य हो सकता है । पर वास्तव में मान्य नहीं है। जहां भी स्वतंत्रता की बात होती है, वहां बड़ी समस्या पैदा हो जाती है । 1 ध्यान की गहराई में गए बिना, चेतना की परतों का विश्लेषण किए बिना, उनका साक्षात्कार किए बिना दूसरे व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व है, यह बात जानते हुए भी नहीं जानी जाती, समझते हुए भी नहीं समझी जाती । हमारा चेतना का जगत् एक बहुत बड़ा विचित्र जगत् है, सूक्ष्म जगत् है। हम कभी चेतना के जगत् में विहार नहीं करते । हमेशा हमारी दृष्टि वस्तुनिष्ठ रहती है और हमारा सारा चिन्तन भी वस्तु-1 - निष्ठा रहता है । एक पुत्र यदि वर्ष में दस-बीस लाख रुपये कमाकर ला देता है तो पिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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