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अभय की मुद्रा
का सम्बन्ध है, युगल है, जोड़ा है। हर्ष आएगा तो शोक को आना ही पड़ेगा । शोक आएगा तो हर्ष को आना ही पड़ेगा। यह नहीं हो सकता कि कोई अकेला आ जाए। साथ - साथ आएंगे। थोड़ा आगे पीछे हो सकता है । इतनी देरी हो सकती है कि एक साथी पहले पहुंच जाए और दूसरा साथी घंटा भर बाद पहुंच जाए। आखिर पहुंचना पड़ेगा। दोनों साथी हैं । अलग कैसे रहेंगे ? आनन्द में न हर्ष और न शोक है । यह दोनों से परे की अवस्था है । प्रेक्षा के द्वारा आनन्द की ऊर्मियां जागती हैं। वह आनन्द, जिसका संबंध है केवल समता से । समता के अनुभव से आनन्द जागता है, न हर्ष न शोक । उस स्थिति में हमारी अभय की मुद्रा बनती है ।
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अभय की मुद्रा के दो बड़े साधन हैं-चेतना का अनुभव और आनन्द का अनुभव | प्रेक्षा का काम है इन दोनों को विकसित करना । प्रेक्षा है भीतर में देखना । बाहर को देखता है तब भय जागता है । सारा भय बाहर से लगता है । इसका कारण बहुत स्पष्ट है । हमारे जितने मूल्य, मानदण्ड और मान्यताएं हैं वे दूसरे के कारण हैं। मैं दूसरे को देखूंगा तो दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। कोई मुझसे छोटा है तो मेरे मन में अहंकार की भावना जागेगी। कोई मुझसे बड़ा है तो मेरे मन में हीन भावना जागेगी। यह अहंकार की ग्रन्थि, हीन भावना की ग्रन्थि- दोनों ग्रन्थियां पर दर्शन से पैदा होते । जितने सामाजिक मूल्य है, मापदण्ड हैं वे सारे पर दर्शन से पैदा होते
हैं।
पड़ौसी ने ऐसा विवाह किया, यदि मैं वैसा नहीं करूंगा तो लोग क्या समझेंगे ? अच्छा ही नहीं लगेगा। बस, पड़ौसी ने किया इसलिए वह एक मूल्य बन गया, मापदण्ड बन गया। इस समस्या का, इस भय को पैदा करने वाली समस्या का पार पाना है तो अन्तर्दर्शन का अभ्यास करना होगा। जिस व्यक्ति ने अपने भीतर में झांकना, भीतर में देखना शुरू कर दिया उसके लिए सारे मूल्य समाप्त हो गए, सारे मानदण्ड समाप्त हो गए । न कोई मूल्य है, न कोई मानदण्ड है । यह डर नहीं है कि कौन क्या कहेगा ? कुछ भी नहीं है । सारी बातें समाप्त हो जाती हैं । जब मूल्यातीत और मानदण्डातीत भावना का विकास होता है, इसका अर्थ है अभय की मुद्रा का विकास ।
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