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________________ २५० कैसे सोचें ? बनती हैं। मूर्छा टूटती भी है और घनी भी होती है। आश्चर्य नहीं है। यह एक कर्म-शास्त्रीय प्रक्रिया है, और ऐसा होता है। वह तो सामान्य युवती थी, कोई विशेष बात ही नहीं थी। एक दिन मन विचलित हो गया। पर भावना थी कि पति के आदेश का पूरा पालन करे। अपने नौकर को भेजा-जाओ ! उस आदमी को बुला लाओ जो शौच के लिए सबसे ज्यादा दूर जाता हो। नौकर गया। खोज-खाजकर एक आदमी को ले आया। युवती ने बातचीत की। प्रसंगवश पूछा-आप इतनी दूर क्यों जाते हैं ? । उसने कहा-'लज्जा बहुत आती है, बहुत सकुचाता हूं। बड़ा संकोचशील हूं। लाज है, शर्म है।' वह बोला-'कोई भी आदमी मेरे गुप्तांग को न देख ले। पक्षी भी न देख ले। और क्या, शौच जाता हूं, पास जो सिकोरा होता है उसे भी ऐसी ओट में रखता हूं कि मेरे गुप्तांग को न देख सके। इतना लज्जालु हूं। इसलिए मुझे शौच के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है।' युवती ने सुनकर तत्काल कहा-'ठीक है मैंने जानना चाहा, आपने बताया, बड़ी कृपा की। आप अपने घर जा सकते हैं।' समझ गयी मन में लज्जा बचा देती है। लज्जा से बहुत बड़ा बचाव हो जाता है। लज्जा, मानसिक संकोच-ये सारे रचनात्मक भय हैं। आदमी रोग से डरता है, मृत्यु से डरता है। मैं समझता हूं यह बहुत पुरानी मनोवृत्ति है। हम परिणाम से डरते हैं, प्रवृत्ति से नहीं डरते। परिणाम से डरने का कोई अर्थ नहीं होता। डरना चाहिए प्रवृत्ति से न कि परिणाम से। किन्तु हमेशा मनुष्य की यह दुर्बलता रही है कि वह परिणाम से डरता है, प्रवृत्ति से नहीं डरता। परिणाम हो गया तो डरने का कोई अर्थ नहीं होता, फिर भी डरते हैं। और प्रवृत्ति से डरने का अर्थ होता है फिर भी नहीं डरते । डरना चाहिए प्रवृत्ति से । रोग से डरते हैं। जिन कारणों से रोग होता है उन कारणों से नहीं डरते। यदि हम रोग के कारणों से भय करते हैं तो हमारा भय रचनात्मक हो जाता है। डरने का एक अर्थ रचनात्मक होता है। मैं अधिक खाऊंगा तो रोग हो जाएगा। इस भय से अधिक खाने से डरें। कुपथ्य खाऊंगा तो रोग हो सकता है, कुपथ्य खानेसे डरें। मानसिक आवेग आएंगे तो रोग हो जाएगा, यानी गुस्सा करूंगा तो 'हार्टट्रबल' हो सकती है, रक्तचाप बढ़ सकता है, शरीर में विष पैदा हो सकते हैं, तो क्रोध करने से डरें। रोग को पैदा करने वाले कारणों से डरें तो हमारा भय रचनात्मक हो सकता है। अब रोग पैदा हो गया, उससे डरें, बीमारी पैदा हो गई, अब क्या होगा ? हे भगवान् ! कितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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