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भय के स्रोत
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'झूठ कैसे नहीं कहा ? संघाई में प्लेग से पचास हजार आदमी मरे हैं।'
'तुम सच कहते हो, संघाई में पचास हजार आदमी मरे हैं। किन्तु महाशय ! मैंने दस हजार आदमी ही मारे थे। शेष चालीस हजार आदमी मौत के भय से मर गए ? मैं क्या करता ? मैंने झूठ नहीं कहा है।
यह सही है कि आदमी भय को पकड़ लेता है परिस्थिति के कारण। कहीं एक घटना घटती है, कहीं धमाका होता है और हार्टफेल किसी दूसरे का हो जाता है। एक घटना घटित होती है, सामने रहने वाला उससे प्रभावित होता है या नहीं, मरता है या नहीं, पर सुनने वाला मर जाता है-यह है परिस्थिति के घेरे में जीना।
हमें भय की चर्चा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भय सतत चर्चा करते रहने से सुनने वाले में भय व्याप्त हो जाता है। हमें डरना नहीं है, भय से मुक्ति पानी है।
भय की उत्पत्ति के कारणों की चर्चा हमने की। अब भय-निवारण के उपायों की चर्चा करनी है। ऐसे कौन-से उपाय और स्रोत हैं, निमित्त हैं, जिनका अवलंबन लेकर आदमी भय मुक्त हो सकता है ? क्या यह भी संभव हो सकता है कि भय कि परिस्थिति होने पर भी आदमी डरे नहीं ? भय का निमित्त होने पर भी विचलित न हो, विक्षुब्ध न हो ? भय का वातावरण रहने पर भी आदमी अप्रकंप रहे ? रोग उत्पन्न होने पर भी आदमी घबड़ाए नहीं?
हां, ऐसा हो सकता है। प्रेक्षा उसका एक उपाय है। कायोत्सर्ग अभय बनने का उपाय है। प्रेक्षा-ध्यान करने वाले उपाय की साधना करते हैं। अपाय और उपाय-दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। अपाय को जाने बिना उपाय को नहीं जाना जा सकता और उपाय को जाने बिना अपाय को नहीं जाना जा सकता। यदि अपाय को निरस्त करना है तो उपाय का आलंबन लेना ही होगा। जिसे निरसन करना है उसे भी पूरी तरह से जानना होगा। बुराई को निरस्त करना है तो उसे भी जानना पड़ेगा। बुराई अज्ञेय नहीं, ज्ञेय है। बुराई हेय हो सकती है, पर ज्ञेय तो है ही। अच्छाई भी ज्ञेय है और बुराई भी ज्ञेय है। हम जिसे जानते ही नहीं, उसे समाप्त कैसे करेंगे ? जहां ज्ञेय का प्रश्न है वहां बुराई और अच्छाई में कोई अन्तर नहीं है। जहां हेय और उपादेय का प्रश्न आता है वहां बुराई हेय है और अच्छाई उपादेय है। हमें दोनों को जानना है, हेय को छोड़ना है और उपादेय को स्वीकार करना है।
मनोवैज्ञानिक परीक्षण का निष्कर्ष है कि ध्यान एक विषय पर चार सेकण्ड से अधिक नहीं टिकता। ध्यान का एक सिद्धांत इसे स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार एक ही विषय पर ध्यान ५-१० घण्टा या अधिक भी
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