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________________ २०२ कैसे सोचें ? भूख लगती है तब दूसरी ही बकरी बन्धती है। ऐसी मैत्री नहीं चाहिए। मैत्री वह होती है जहां भूख होने पर शेर बकरी पर नहीं झपटता और एक ही पिंजरे में एक साथ रह जाता है। विरोधी प्राणी एक साथ रहें, यह वास्तविक मैत्री है। आदमी ने इस चेतना का विकास किया है। उसने अपने विकसित चेतना के द्वारा ऐसी तरंगों का निर्माण किया है जहां पूरा अभय है। उसे देश, काल, व्यक्ति, वस्तु और अपने मन में उठने वाली तरंगों का भय नहीं है। सबसे अधिक भय अपनी तरंगों का होता है। जब मन की तरंगें विकराल रूप धारण करती हैं, मन में जब बवंडर या तूफान उठता है, तब चेतना का पूरा समुद्र मथित हो जाता है, उद्वेलित और क्षुब्ध हो जाता है। उस समय व्यक्ति संतुलन खो देता है। कल्पना का भय सबसे भयंकर होता है। परन्तु ध्यान के अभ्यासी व्यक्ति में ये तरंगें पैदा ही नहीं होती। उसकी चेतना जब इस स्थिति तक पहुंच जाती है, तब वह अभय के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। वह सर्वत: अभय हो जाता है। हृदय-परिवर्तन का तीसरा सूत्र है-सहिष्णुता का विकास। एक बहिन ने पूछा-पारिवारिक जीवन में शांति कैसे रह सकती है ? मैंने कहा-शांति की बात बाद में सोचना। पहले सहिष्णुता की बात सोचो। सहिष्णुता का फलित है-शांति । यदि सहिष्णुता नहीं है तो शांति हो ही नहीं सकती। सहिष्णुता का अर्थ है-एक दूसरे को सहन करना। भिन्न विचार, भिन्न आचार, भिन्न संस्कार, भिन्न रुचि-सब कुछ भिन्न है। न विचार मिलते हैं, न आचार मिलता है, न संस्कार मिलते हैं और न रुचि मिलती है। इतनी भिन्नता होने पर भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हो जाता है। कहीं कोई कठिनाई नहीं है। सर्दी और गर्मी, अंधकार तत्त्वों का सह अवस्थान हो सकता है। अनेकान्त सिद्धांत की सबसे बड़ी फलश्रुति है-विरोधी युगलों का एक साथ रहना। यह अनेकांत की मूल आधारभूमि है। जब पदार्थ-जगत् में विरोधी युगल एक साथ रह सकते हैं तो क्या विरोधी विचार वाले या विरोधी व्यवहार वाले दो आदमियों का सहावस्थान हो नहीं सकता ? उनका सहावस्थान हो सकता है, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हो सकता है। पर इसका भूल सूत्र है-सहिष्णुता का विकास । इसका अर्थ है एक दूसरे को सहन करना, भिन्न आचार-विचार को सहन करना, भिन्न संस्कार और रुचि को सहन करना। सहन करने से कलह का निवारण हो जाता है ! यही शान्ति का बहुत बड़ा आलंबन है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि से सोचता है, विचार करता है। मैं अपनी दृष्टि से सोचता हूँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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