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कैसे सोचें ?
का तेज घोड़ा है। जब बदलने का उपाय पूछा जाता है तो मौन। उपाय कोई नहीं। निरुपाय। यह गधे जैसी स्थिति हो जाती है। यह हमारे जीवन की व्यर्थता है, असफलता है। मेरा ऐसे असफल जीवन में विश्वास नहीं है। मैं उस बात में विश्वास करता हूं, जिसमें परिवर्तन के सिद्धांत की प्रतिष्ठापना के साथ-साथ उसके क्रियान्वयन के उपाय भी निर्दिष्ट हों। निरुपाय सिद्धांत व्यर्थ होता है। उसकी कोई उपलब्धि नहीं होती।
अपाय है तो उपाय भी है। अपने पुरुषार्थ के द्वारा उपाय को खोजना है और उसे काम में लेना है।
प्रश्न आता है कि आदमी प्रिय-अप्रिय संवेदनों को कैसे कम करे ? जीवन के ये दो तत्त्व हैं-प्रियता और अप्रियता। इनसे प्रत्येक व्यक्ति संदानित है। इनसे छुटकारा पाना सहज-सरल नहीं है। पर ये निरुपाय नहीं हैं।
जो व्यक्ति प्रिय-अप्रिय संवेदनों से मुक्त होना चाहता है वह ज्योति-केन्द्र पर ध्यान करे। यह एक अनुभूत और महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। इस प्रयोग से कषाय-विजय होती है। प्राण-केन्द्र पर ध्यान करने से प्रमाद आश्रव पर विजय प्राप्त होती है। प्रमाद अनुत्साह पैदा करता है, चेतना को अलस और मन्थर बनाता है, निष्क्रिय बनाता है। जो व्यक्ति प्राण-केन्द्र को साध लेता है वह प्रमाद से छुट्टी पा लेता है। उसके मन में अरति नहीं होती, आर्त भावना कम हो जाती है। उसका मन विपदाओं से मुक्त हो जाता है। पदार्थनिष्ठ रस समाप्त होने लग जाता है। वही रस बचता है जो जीवन के लिए अनिवार्य होता है।
__ध्यान करने वाला व्यक्ति आवश्यकता को नहीं खोता, किन्तु जीवन की व्यर्थताओं से बच जाता है। प्रत्येक आदमी लेखा-जोखा करके देखे तो सही कि वह जीवन में आवश्यक कार्य कितना करता है और कितने व्यर्थ । जीवन की बात छोड़ दें, वर्षभर की बात रहने दें, वह प्रतिदिन यह लेखा-जोखा करके देखे कि पूरे दिन में आवश्यक कितना किया और अनावश्यक कितना किया ? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सामान्यत: आदमी सत्तर-अस्सी प्रतिशत अनावश्यक काम करता है।
ध्यान का अर्थ निष्क्रिय और अकर्मण्य हो जाना नहीं है। ध्यान का अर्थ है-अनावश्यक से निष्क्रिय हो जाना और आवश्यक में सक्रिय हो जाना और उसी में सारी शक्ति का नियोजन कर देना। जो कार्य हो वह अधिक सुघड़ता, सफलता, कुशलता और दक्षता के साथ सम्पन्न हो। सुघड़ता और
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