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कैसे सोचें (१)
जाती है। बुराई और आस्था का इतना गहरा संबंध कि आदमी बुराई के रास्ते पर चलता है और स्वत: उस रास्ते पर उसकी आस्था जमती चली जाती है। बहुत प्रयत्न करने की जरूरत ही नहीं रहती। बिना कुछ साधना किए ही आस्था का अनुबंध हो जाता है। भलाई के रास्ते पर आस्था का जमना, आस्था का अनुबंध होना बहुत कठिन होता है।
हम कैसे सोचें ? हमारा सोचने का तरीका क्या हो ? इसे जानना इसलिए जरूरी है कि निषेधात्मक दृष्टि से चिन्तन करने वाला व्यक्ति हर सचाई को नकारता चला जाता है और विधायक दृष्टि से चिन्तन करने वाला व्यक्ति सचाई के पास पहुंच जाता है, सचाई को उपलब्ध हो जाता है और वह अनेक समस्याओं का समाधान पा लेता है।
चिन्तन की दो दृष्टियां हैं-निषेधात्मक दृष्टि और विधायक दृष्टि । आदमी बहुत बार निषेधात्मक दृष्टि से ही सोचता है, वह विधायक दृष्टि से नहीं सोचता। निषोधात्मक दृष्टि से सोचने का परिणाम होता है-निराशा, अनुत्साह, आवेग, कार्य से निवृत्ति, कर्त्तव्य से अपसरण। एक शब्द में कहें तो निषेधात्मक दृष्टि का परिणाम है-जीवन में असफलता का उदय।
___ जीवन की सफलता का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है-विधायक दृष्टि से सोचना। विधायक दृष्टि से वही व्यक्ति सोच सकता है, जिसने ध्यान का मर्म समझा है, जिसने चित्त को निर्मल करना सीखा है, जिसने मन को एकाग्र करना सीखा है और जिसने राग-द्वेष के मलों को साफ करना सीखा है।
विधायक दृष्टिकोण और निषेधात्मक दृष्टिकोण की कुछ कसौटियां
पहली कसौटी है--समग्रता की दृष्टि और व्यग्रता की दृष्टि । समग्रता की दृष्टि से चिन्तन करने वाला व्यक्ति विधायक दृष्टि से सोच सकता है और व्यग्रता की दृष्टि से चिन्तन करने वाला एकांगी आग्रह में फंस जाता है और अपने चिन्तन को विकृत बना देता है।
जब व्यक्ति के सामने घटना का या वस्तु का पूरा चित्र नहीं होता, अधूरा चित्र होता है, तब उसके आधार पर किया गया चिन्तन भी अधूरा ही होगा। वह सही नहीं हो सकता। सम्यक् और संतुलित चिन्तन के लिए जरूरी है-समग्रता का दृष्टिकोण। जब विधायक या समग्रता का दृष्टिकोण होता है तब अनेक अहेतुक संघर्ष उभर आते हैं।
एक प्रसंग है। कुछ पथिक आम की शीतल छांह के नीचे आकर बैठे। चर्चा चल पड़ी। एक बोला-अभी मैं इस रास्ते से गुजरा हूं। मैंने देखा एक वृक्ष पर एक जानवर बैठा है। वह लाल रंग का है। तत्काल दूसरा बोल
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