SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कैसे सोचें (१) हम चिंतन की महत्ता स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर निर्विकल्प या विचार शून्य अवस्था की प्राप्ति के लिए ध्यान-साधना में संलग्न होते हैं। क्या यह विसंगति या विरोधाभास नहीं है ? पर हम इस बात को न भूलें कि निर्विचार अवस्था या अचिंतन की अवस्था में पहुंचना हमारा लक्ष्य अवश्य है पर वहां तक पहुंच पाना आज ही संभव नहीं हो सकता। यह मान लेना बहुत बड़ी भ्रान्ति है कि ध्यान की साधना प्रारम्भ करते ही व्यक्ति विचारातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ध्यान-काल में विचारों का प्रवाह और तीव्र हो जाता है। जो विचार सामान्य अवस्था में नहीं आते, वे विचार ध्यान-काल में उभर जाते हैं। जैसे ही व्यक्ति ध्यान की मुद्रा में या कोयोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होता है, तब उसमें न आने वाले विचार भी आने लग जाते हैं। उस समय विस्मृत तथ्यों की स्मृति उभर जाती है और व्यक्ति विचारों से आक्रांत हो जाता है। इस अवस्था में आदमी आकुल-व्याकुल हो जाता है और वह ध्यान-साधना को छोड़ने की बात सोच लेता है, परन्तु उस समय विचारों का आना तो अनिवार्य है क्योंकि उनके उद्भव का वह एक सुन्दर अवसर है। जब आदमी तनाव में होता है तब सब उससे डरते हैं। विचार भी तब आना नहीं चाहते। जब आदमी कायोत्सर्ग की मुद्रा में होता है, शिथिल होकर बैठता है, जब सारे तनाव विसर्जित हो जाते हैं, तब विचार सोचते हैं-चलो अब यह अच्छा अवसर है। कोई खतरा नहीं है। वे बेधड़क आते ही रहते हैं। जब तक शिथिलीकरण बना रहता है, वे अभय हो जाते हैं। शिथिलीकरण में सबका भय समाप्त हो जाता है। तनाव की स्थिति में भयभीत हो जाते हैं, सब परस्पर खींच जाते हैं। तनाव की स्थिति में मांसपेशियां खींच जाती हैं, हड्डियां कड़ी हो जाती हैं। शिथिलीकरण में कोई आदमी गिरता है तो उसे चोट नहीं लगती और यदि तनाव की स्थिति में कोई आदमी गिरता है तो उसे बहुत गहरी चोट आती है। जितना अधिक तनाव उतनी ही अधिक चोट । ध्यान एक प्रक्रिया है। उसका परिणाम है कि व्यक्ति की पकड़ कम हो जाती है। उसमें प्रवेश का अवकाश है तो निर्गम का भी उतना ही अवकाश है। ध्यान करने वाले सबका स्वागत करते हैं, आने वाले का भी स्वागत करते हैं और जाने वाले का भी स्वागत करते हैं। ध्यान न करने वाले अनेक तथ्यों को ऐसे पकड़ लेते हैं कि वे जीवन भर उन्हें छोड़ नहीं सकते। पकड़ने वाले बहुत दु:खी होते हैं। ध्यान का प्रारम्भ करते ही व्यक्ति विचारों से आक्रान्त हो जाता है। ध्यान करने वाले को उस विचार-प्रवाह से घबराना नहीं है। वह ज्ञाता-द्रष्टा बन जाए। जो आते हैं उन्हें देखे और छोड़ दे। जैसे-जैसे द्रष्टाभाव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy