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ऋषभ और महावीर
की चिन्ता नहीं सताती जो निश्चिन्तता का जीवन जीता है । मृत्यु समाधिमरण का एक प्रयोग है । जो निश्चिन्तता का जीवन जीता है, वह इसकी अनुभूति कर सकता है। समाधि का प्रयोग : निःशेषम्
उज्जैन चातुर्मास (वि. सं. २०१२) में आगम संपादन का कार्य प्रारंभ हुआ। हमने सोचा–काम करना है, संपादन करना है और काफी गहराई में उतरना है। यदि सोचने का चक्कर निरन्तर चलेगा तो समस्या पैदा हो जाएगी। निरन्तर चिन्तन से काम भी ठीक नहीं होगा, बुढ़ापा भी जल्दी आएगा और मौत भी जल्दी आ सकती है। चिन्तन तनाव पैदा करता है। यदि निरन्तर तनाव रहता है तो बुढ़ापा, बीमारी और मौत–तीनों को खुला निमंत्रण मिल जाता है। प्रश्न प्रस्तुत हुआ— क्या किया जाए? एक समाधान खोजा—नि:शेषम् । जब तक काम में लगे रहे, दो घंटा-तीन घंटा काम किया तब तक उस कार्य में अपनी शक्ति का नियोजन । ज्योंही कार्य को संपन्न कर उठते, उस कार्य से पूर्णत: निवृत्ति । आज जो करना था, कर लिया, शेष कुछ भी नहीं रहा, इस चिन्तन ने, इस नि:शेष सूत्र ने कार्य की गति को बढ़ाया, कार्य से पैदा होने वाले तनाव से मुक्त बनाए रखा। 'नि:शेषम्' यह सूत्र हमारे कार्य की सफलता का महत्त्वपूर्ण आधार बना है। आचार्य भिक्षु ने जीवन के अन्तिम क्षणों में यही कहा था-'उणायत कोई रही नहीं, कुछ भी बाकी नहीं रहा। हर व्यक्ति ने कुछ न कुछ शेष रह जाता है। आंतरिक अनुभूति में जीने वाला व्यक्ति कह सकता है-मेरे कुछ बाकी भी नहीं रहा। जहां मूर्छा है वहां नि:शेष होने की बात प्राप्त नहीं होती। मूर्छाग्रस्त व्यक्ति के कुछ शेष रह ही जाता है । मूर्छा समाप्त हो जाए तो परिपूर्णता का सूत्र प्राप्त हो जाए। यह नि:शेष का सूत्र समाधि का एक प्रयोग है। समाधिमरण की प्रक्रिया
समाधिमरण की प्रक्रिया एक दिन में पूर्ण होने वाली प्रक्रिया नहीं है। महावीर ने समाधि-मरण का जो दर्शन दिया है, उसकी एक व्यवस्थित प्रक्रिया का निर्देश मिलता है । आचारांग सूत्र में उस प्रक्रिया का बहुत सुन्दर उल्लेख है। व्यक्ति सबसे पहले आहार का नियमन करे । बारह वर्ष तक आहार के नि तर अल्पीकरण का विधान है। केवल आहार का प्रयोग ही नहीं, उसके साथ कषाय का भी अल्पीकरण करे । कषायों को पतला करता चला जाए---क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को कृश बनाता चला जाए। शरीर और कषाय—दोनों कृष बन जाए।
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