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मृत्यु का दर्शन : समाधिमरण
जिससे जीर्ण देह नूतन बन जाती है, वह मृत्यु है। क्या वह प्रमोद के लिए नहीं है। वह वैसे ही प्रमोद के लिए है जैसे किसी सुख की उपलब्धि । मनुष्य की प्रकृति
इतना समझाने पर, मृत्यु को महोत्सव बतलाने पर भी मौत का डर निकला हो, ऐसा लगता नहीं है। आदमी जिस अवस्था में है उसको छोड़ना नहीं चाहता। वह जिस मकान में रहता है, उस मकान को छोड़ना नहीं चाहता। जिस गांव में रहता है, उस गांव को छोड़ना नहीं चाहता। एक वृद्ध महिला से मैंने पूछा-तुम भी बाहर परदेस में रहती हो? उसने उत्तर दिया-महाराज ! क्या करूं? वहां मन तो नहीं लगता पर रहना पड़ता है। एक वृद्ध भाई से पूछा-आजकल गांव में नहीं रहते? उसने कहा—महाराज ! सारे लड़के बाहर रहते हैं। घर में कोई नहीं रहना चाहता। इसलिए परदेस में जाना पड़ता है। परवश होने के बाद यही स्थिति बनती है । प्रदेश में घर पर निठल्ला बैठा रहता हूं। जब गांव में जाता हूं तो दस-बीस परिचित आदमी मिल जाते हैं। बातचीत में समय कट जाता है । पर प्रदेश में किसी को नहीं जानता इसलिए किससे बात करूं? किससे बोलूं? वह घर मुझे जेलखाने जैसा लगता है पर उसमें रहना ही मेरी नियति बन गया है। मृत्यु : समाधिमरण का प्रयोग ___ जिससे परिचय हो जाता है, व्यक्ति उसे छोड़ना नहीं चाहता। इसमें सबसे बड़ी बाधा है संस्कार। व्यक्ति के संस्कार सघन बन जाते हैं। आदमी इस शरीर को छोड़ना नहीं चाहता। इस शरीर से जो सम्बन्ध बना हुआ है, उसे छोड़ने का मानस नहीं बनता। व्यक्ति मानता है--परिवार छूट जाएगा, घर छूट जाएगा, धन छूट जाएगा। बीमारी बढ़ रही है, ठीक से खाया नहीं जा रहा है, सांस लेने में दिक्कत हो रही है फिर भी उसका प्रयत्न रहता है जैसे-तैसे जीने का । जीने में कोई सार नहीं है पर मूर्छा छूटती नहीं है। वह जिससे बंधा हुआ है, उसे छोड़ना नहीं चाहता। _ 'मृत्यु महोत्सव है' यह बात उसी व्यक्ति के समझ में आ सकती है जिसने एक प्रक्रिया को क्रम से अपनाया है अन्यथा यह बात समझ में नहीं आ सकती । जयाचार्य ने हेमराजजी स्वामी को अन्तिम क्षणों में कहा-महाराज! आप अब समाधिमरण की तैयारी में हैं. समाधिमरण की दिशा में प्रस्थान कर रहे हैं। हमें किसी बात की चिन्ता नहीं है क्योंकि मृत्यु को महोत्सव के रूप में परिणत करने वाला धन्य माना जाता है। मृत्यु एक महोत्सव है, वह चिन्ता का विषय नहीं है । उस व्यक्ति को मृत्यु
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