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मृत्यु का दर्शन : समाधिमरण शिष्य की जिज्ञासा
शिष्य गुरु की सन्निधि में पहुंचा। वह विनम्र वंदना कर बोला-गुरुदेव ! मैंने सुना है-जीवन और मृत्यु दो हैं। यदि वे दो हैं तो बीच में कोई भेदरेखा होनी चाहिए। मैंने बहुत खोजा पर भेदरेखा कहीं नहीं मिली । मेरी जिज्ञासा है---जीवन और मरण में भेदरेखा कहां है? आप कहते हैं----जीवन अलग है और मरण अलग। आदमी जीना चाहता है, मरना नहीं चाहता। इसका मतलब है-आपको भेदरेखा है पर वास्तव में जीवन और मरण के बीच भेदरेखा कहां है?
जीवने मरणे क्वास्ति भेद-रेखा समन्ततः ।
न लब्धेयं मया स्वामिन्, ततो जिज्ञासितं मम । एक बच्चा जन्मा, पहला क्षण बीता। क्या उस समय वह केवल जीता है ? मरता नहीं है ? हम क्या कहेंगे? कहा जाएगा—जिस क्षण में उसने जीना शुरू किया है उस क्षण में उसने मरना भी शुरू कर दिया है। इस स्थिति में भेदरेखा को कैसे पकड़े? आचार्य का समाधान
आचार्य ने कहा-वत्स ! जीवन और मरण में एक भेदरेखा है और वह आत्यन्तिक मरण के आधार पर खींची जा सकती है। जीवन की समाप्ति का नाम है-आत्यन्तिक मरण । यह भी सही है, जीवन के साथ-साथ मौत चल रही है। दोनों में प्रगाढ़ मैत्री है, दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। जीवन मृत्यु को छोड़कर नहीं चलता, मृत्यु भी जीवन के साथ जुड़ी हुई चलती है। व्यक्ति जिस क्षण में जन्म लेता है, वह उसी क्षण में मरना शुरू कर देता है इसलिए जीवन और मरण के मध्य भेदरेखा खींचना भी मुश्किल है । जिस व्यक्ति का सौ वर्ष का जीवन है वह सौ वर्ष जीता है और सौ वर्ष मरता है। यह एक सच्चाई है। जो सूक्ष्मता से देखता है, उसका सत्य दो नहीं होता, एक होता है । सच्चाई एक होती है पर उसका ग्रहण नहीं होता। यदि जीवन और मरण को बांटेंगे तो कहा जाएगा–व्यक्ति पचास वर्ष जीता
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