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निर्वाणवाद के प्रवक्ता : भगवान् महावीर (१)
अपना पता करो और उसके बाद ईश्वर से मिलने की बात करो ।
अबाध होना निर्वाण है
जिस व्यक्ति को अपना पता है, उसे ईश्वर अपने आप मिल जाएगा। उसे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। महावीर ने सबसे ज्यादा इस बात पर बल दिया- अपनी आत्मा को देखो, अपनी आत्मा को जानो और अपनी आत्मा में रहो । यही निर्वाण है । निर्वाणवाद मात्र अलौकिक कथा नहीं है, वह बहुत गहरा सिद्धांत है, व्यावहारिक सिद्धांत है ।
केशी-गौतम को संवाद में निर्वाण का महत्त्वपूर्ण स्वरूप मिलता है
निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धि लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं तं चरंति महेसिणो ॥
निर्वाण का एक अर्थ है- किसी भी बाधा का न होना । प्रत्येक आदमी बाधा का जीवन जीता है। बाधाओं, विघ्नों को पार कर जाना, उन्हें जीत लेना निर्वाण है । आदमी बाधाओं और विघ्नों को मिटाने के लिए विनायक की पूजा करता है । यह प्रार्थना करता है— हे विनायक ! विघ्नों को दूर कर दो। न जाने कितनी विनायक की मूर्तियां बनी हुई हैं और वे कितने घरों में प्रतिष्ठित हैं ! इसका कारण है-आदमी बाधा को सहन करना नहीं चाहता, उसे मिटाना चाहता है। निर्वाण का मतलब है अबाध हो जाना । यदि हम आत्मा की पवित्रता के द्वारा ऐसी स्थिति का निर्माण कर सकें, ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकें, जहां कोई बाधा न हो तो वहां निर्वाण की बात संभव बन जाती है ।
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अव्याबाध सुख
निर्वाण का एक अर्थ — अव्याबाध सुख । हमारा ज्ञान, आनंद, शक्ति और सुख अव्याबाध बन जाए। हम पूरे समाज या मानव जाति का विश्लेषण करें, इहलोक या परलोक का विश्लेषण करें, देवताओं या नारकों के जीवन का विश्लेषण करें, हमें पता चलेगा - अव्याबाध सुख कहीं नहीं है । यह माना गया — देवता सदा सुखी रहते हैं, नारक सदा दुःख भोगते हैं और मनुष्य कभी सुख भोगता है, कभी दुख: भोगता है । यह एक सामान्य कल्पना है। क्या देवताओं का सुख अव्याबाध है ? उनका सुख भी अव्याबाध नहीं है। उनके शारीरिक दुःख भी आता है, मानसिक दुःख भी आता है । देवताओं में छीना-झपटी भी चलती है । वे एक दूसरे की संपत्ति चुरा लेते हैं । उनमें संघर्ष चलता है। हम छोटे देवों की बात छोड़ दें । सौधर्मेन्द्र
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