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________________ जागो ! क्यों नहीं जाग रहे हो ? गया। उन्होंने कहा-यह भरत का बड़ा अत्याचार है। लगता है-उसे बड़ा अहंकार हो गया है। उसमें अधिकार की भावना जाग गई है। यह राज्य हमारे हिस्से में आया हुआ है। जब पिता सब बेटों को अलग-अलग हिस्सा दे देता है तब एक भाई किस अधिकार से उनका हिस्सा मांगता है। यह कितना बड़ा अन्याय है ! हम इस अन्याय को सहन नहीं करेंगे। भरत राज्य लेना नहीं चाहता पर हमें अनुशासन में रखना चाहता है। हम स्वतंत्र हैं। उसका अनुशासन क्यों मानें । हम कैसे उसकी अनुशासना को स्वीकार करें? हम अधीन क्यों बनें? सेवा का फल : भरत का सामर्थ्य ___ उस समय भाइयों के मन में जो विकल्प पैदा हुए उनका सुन्दर चित्रण किया गया है-हम भरत को शास्ता क्यों माने? क्या भरत में यह शक्ति है कि जब मौत आएगी तो वह हमें बचा लेगा? क्या भरत में यह शक्ति है कि जब बुढ़ापा आएगा तो वह हमें बूढ़ा नहीं बनने देगा? क्या भरत में यह शक्ति है कि कोई बीमारी आएगी तो वह हमें बीमारी से बचा लेगा? जैसे भरत के मन में लालसा जाग रही है वैसे ही हमारे मन में भी अपने अधिकार को बढ़ाने और पाने की लालसा जाग जाए तो क्या भरत में यह क्षमता है कि वह हमारी इस बढ़ती हुई तृष्णा को मिटा दे ! कौन-सी विशेष बात है भरत में? क्या सेवा का ऐसा फल मिलेगा, जो मौत को न आने दे, बीमारी को न आने दे, तृष्णा और बुरे भावों को न बढ़ने दे। यह सेवा का फल है। अगर भरत ऐसा फल देने में समर्थ नहीं है तो हम क्यों जाएं उसके पास? जैसा वह आदमी है वैसे ही हम आदमी हैं । हम सब समान हैं । भरत कौन सेवा लेने वाला है और हम कौन सेवा देने वाले हैं। सेवा. लेने और देने का अधिकार तब होता है जब कोई विशेष बात हो, विशिष्टता हो। ईदृक् सेवाफलं दातुं न चेद् भरत ईश्वरः । मनुष्यभावे सामान्ये, तर्हि क: केन सेव्यताम् ।। सेवा और समस्या ___ एक शाश्वत सत्य का उद्गान हुआ है-वही आदमी सेवा ले सकता है जिसने विशेषता प्राप्त कर ली है और उसी व्यक्ति को दूसरा व्यक्ति सेवा दे सकता है, जिसमें यह अनुभूति जागे-अमुक व्यक्ति में यह विशेषता है। इस स्थिति में सेवा लेना और सेवा देना—दोनों संगत बन जाते हैं। अगर विशेषता नहीं है, कोई अतिरिक्तता नहीं है, सब समान हैं, हर आदमी समान है तो कौन किसको सेवा दे और कौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003093
Book TitleRushabh aur Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size5 MB
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