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धर्म तीर्थ का प्रवर्तन
स्थतियां उनके सामने प्रत्यक्ष हो गईं। पदार्थ की स्थिति क्या है? पदार्थ क्या है? यह जगत् क्या है? यह किससे बना है? यह किस प्रकार बनता है? यह फूल किस प्रकार विकसित होता है, खिलता है और किस प्रकार मुरझा जाता है ? पदार्थ : अपदार्थ
इस सारे चिन्तन से ऋषभ के मन में एक भावना जागी-मैंने समाज का निर्माण किया, समाज की व्यवस्थाएं की, राज्य की स्थापना की, राजतंत्र का संचालन किया। सब कुछ किया पर अभी भी उसमें अधूरापन है। अगर पदार्थ विकास के साथ त्याग का विकास नहीं होगा तो सारा विकास अधूरा रह जाएगा। ऋषभ के मन में एक प्रश्न खड़ा हो गया, एक नई जिज्ञासा पैदा हो गई। उनके मन में एक नई अन्त:प्रेरणा शुरू हुई—मुझे पदार्थ के साथ अपदार्थ का विकास करना है। पदार्थ और अपदार्थ-दोनों का संतुलन नहीं होगा तो काम ठीक नहीं चलेगा। उन्होंने इस सच्चाई का अनुभव किया। ऋषभ ने अपना शासनकाल में पदार्थ को बहुत विस्तार दिया और यह अनुभव भी कर लिया जहां पदार्थ है वहां विषमताएं जन्मे बिना नहीं रहेंगी। विषमता है समस्या
पदार्थ का जगत् विषमताओं का जगत् है । पदार्थ-विकास विषमता पैदा करता है। जो व्यक्ति शक्तिशाली है, वह ज्यादा इकट्ठा करेगा और जो व्यक्ति कमजोर है, वह पीछे रह जाएगा। इस स्थिति में विषमता का होना अनिवार्य है। जैन दर्शन किसी व्यक्ति को सृष्टि का कर्ता नहीं मानता किन्तु जो सृष्टि का कर्ता मानते हैं उनकी दृष्टि से विचार करें तो भी कहा जा सकता है यदि स्वयं परमात्मा भी आ जाए तो वह इस दुनिया से विषमता को नहीं मिटा सकता। सौ मार्क्स जन्म जाएं तो भी इस दुनिया में साम्यवाद नहीं लाया जा सकता, विषमता को मिटाया नहीं जा सकता। विषमता को मिटाना कोरी थोथी कल्पना है मन को झुठा आश्वासन देना है । पदार्थ के जगत् में विषमता को मिटाना कभी संभव नहीं है। ऋषभ का निश्चय
ऋषभ ने एक नया मार्ग प्रारंभ करने का निश्चय किया। उन्होंने ऐसा मार्ग प्रवर्तन करने का संकल्प किया, जहां कोई विषमता नहीं है। उनके मानस में यह संकल्प जाग उठा--मुझे त्याग का प्रवर्तन करना है। पुष्पवाटिका को मूर्तरूप देने का निश्चय कर ऋषभ राजमहल में आए। उन्होंने अपनी भावना भरत के सामने प्रस्तुत की,
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