SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषभ और समाज व्यवस्था • दण्ड प्रहार - दण्ड प्रयोग। यह सबसे बड़ा दंड था । भयंकर अपराधी को डंडों से मारना । मृत्युदण्ड : अमानवीय कृत्य ऋषभ के समय में इन चार दंडों का विकास हुआ। कारावास और दण्ड प्रहार दण्ड संहिता में मान्य थे किन्तु उस समय मृत्युदण्ड का विकास नहीं हुआ । मृत्युदण्ड का प्रचलन कब हुआ, इसे कब मान्यता मिली, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता । मृत्युदण्ड एक प्रकार का अमानवीय कृत्य सा लगता है । एक ओर इसका विरोध हो रहा है तो दूसरी ओर मृत्युदण्ड देने का सिलसिला जारी है। अभी कुछ दिन पहले समाचार पत्र पढ़ा- ईरान में पांच सौ व्यक्तियों को फांसी की सजा दे दी गई । यह बहुत विचित्र बात है । सारे संसार में एक प्रश्न उभर रहा है— मृत्युदण्ड को समाप्त किया जाए । मृत्युदण्ड से अपराध रुके हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता । अपराधी अपराध करते चले जा रहे हैं और सरकारें उन्हें फांसी पर चढ़ाती चली जा रही हैं । अपराध रोकने की जो दूसरी प्रक्रिया है, उस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। न जाने कितने राजनीतिक लोग फांसी के तख्ते पर चढ़ जाते हैं। यदि किसी से प्रतिशोध लेना है तो उस पर कोई आरोप मढ़ दो और उसे सिद्ध कर फांसी पर चढ़ा दो । विश्व के अनेक प्रधानमंत्री इस प्रकार फांसी के फन्दे पर चढ़ाए जा चुके हैं । इसे मानवीय कृत्य नहीं कहा जा सकता । दण्ड की नई व्यवस्था ऋषभ के युग में दण्ड का जो विकास हुआ, वह इस प्रकार से नहीं हुआ । इतने क्रूरतापूर्ण दण्ड का विधान नहीं था । पहले अपराधी को यह अनुभव कराया जाता — तुमने अपराध किया है, गलत कार्य किया जाता है । उसके बाद उसे दण्डित किया जाता । कारावास की बात तो समझ में आ सकती है । जो ज्यादा अपराध करता है, उसे एक स्थान पर बन्द कर दिया जाए तो वह अपराध नहीं कर पाएगा । किन्तु अपराधी को बहुत क्रूर यातनाएं देना, सूली पर चढ़ा देना, उसके शरीर के अवयव को काट देना, अंग-भंग कर देना, अमानवीय कृत्य सा लगता है । मानवीय दृष्टि से सोचें तो ये कृत्य उचित नहीं लगते । ऋषभ के समय में जो दण्ड का विकास हुआ, वह समझदारी से परिपूर्ण लगता है । ऋषभ ने अपराधों की रोकथाम भी की और ऐसी व्यवस्था को जन्म दिया, जिससे अपराध भी न बढ़ें तथा मानवीय क्रूरता को प्रश्रय भी न मिले। उनके इस उपक्रम से दण्ड की नई व्यवस्था का सूत्रपात हो गया। Jain Education International ३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003093
Book TitleRushabh aur Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy