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ऋषभ और महावीर
तक यह प्रक्रिया गतिशील रहती है। विकास करते-करते व्यक्ति उस बिंदु पर पहुंचता है जिस बिन्दु पर पहुंचकर कोई भी व्यक्ति ऋषभ बन जाता है, महावीर बन जाता है। ऋषभ और महावीर एक ही दिन में नहीं बना जा सकता। जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है—प्रत्येक व्यक्ति उच्च भूमिका तक पहुंच सकता है। किन्तु उस भूमिका तक वही पहुंच सकता है जिसने विकास की दिशा में, निर्माण की दिशा में प्रस्थान कर दिया है। विध्वंस की दिशा में जाने वाला उच्च भूमिका तक नहीं पहुंच सकता। ऋषभ विध्वंस की दिशा में नहीं गए। उन्होंने विकास और निर्माण की दिशा में अपने कदम बढ़ाए और इस पृथ्वी पर ऋषभ का अवतरण हो गया। ऋषभ : जन्मना प्राज्ञ
जैन दर्शन का सिद्धान्त है—कोई भी व्यक्ति ईश्वर होकर जन्म नहीं लेता। कोई अवतार नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति अपूर्णता के साथ जन्म लेता है। व्यक्ति व्यक्ति में विशेषता का तारतम्य हो सकता है। किसी व्यक्ति में अपूर्णता ज्यादा होती है और किसी व्यक्ति में कम । जो भी व्यक्ति जन्म लेता है, उसमें दो ज्ञान-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान या दो अज्ञान-मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान अवश्य होते हैं। इससे कम नहीं होते। कोई व्यक्ति ऐसा भी होता है, जिसमें जन्म से तीन ज्ञान होते हैं। उसका तीसरा ज्ञान होता है-अवधिज्ञान, अतीन्द्रियज्ञान । ऋषभ पूर्ण नहीं थे, अपूर्ण थे। व्यक्ति अपनी साधना के द्वारा पूर्ण बनता है। ऋषभ में अपूर्णता के साथ-साथ कुछ विशिष्टता भी थी। वे अवधिज्ञान–अतीन्द्रिय ज्ञान के साथ जन्मे । जन्म से ही उनकी प्रज्ञा जागृत थी। जिस व्यक्ति की प्रज्ञा जागृत होती है उसके जीने का सारा क्रम दूसरे प्रकार का होता है। ऋषभ के जीवन का क्रम बचपन से ही दूसरे प्रकार का था। उन्हें विशिष्ट ज्ञान प्राप्त था। उनकी अतीन्द्रिय चेतना जागृत थी। इसीलिए उस समय के जितने यौगलिक जीव थे, उनका रहन-सहन और बातचीत का जो प्रकार था, ऋषभ का क्रियाकलाप वैसा नहीं था। कहा जाता था—इस कुमार का भाग्य ही अलग प्रकार का है। उसमें कुछ अतिरिक्तता थी। जब प्रज्ञा जागती है, व्यक्ति का व्यवहार बदल जाता है। प्रज्ञा जागरण की परिणति
प्राचीन घटना है। युवराज भद्रबाहु बहुत सुन्दर थे। उन्हें अपने सौन्दर्य पर बड़ा गर्व था, बहुत अहंकार था। वे एक दिन शहर के बाहर परिभ्रमण कर रहे थे। मार्ग में श्मशानघाट आ गया। उन्होंने देखा-एक मुर्दा जलाया जा रहा है।
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