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कालचक्र और कुलकर
परिवर्तन का आधार ___ जबसे इस पृथ्वी का अस्तित्व है, जीव और पुद्गल का संयोग है, तब से प्राणी जगत् का अस्तित्व है, मनुष्य का अस्तित्व है। उसमें परिवर्तन का चक्र चलता रहता है। जैन आचार्यों ने परिवर्तन को अलग-अलग भागों में बांटा । परिवर्तन का एक आधार बना— भौगोलिकता। पृथ्वी पर क्षेत्रजन्य परिवर्तन का एक आधार हैकालचक्र । हम जिस पृथ्वी पर जी रहे हैं, उस पृथ्वी पर कालचक्र का परिवर्तन होता है। कालचक्र चलता है और कालचक्र के आधार पर परिवर्तन चलता है। कालचक्र को बारह भागों में बांटा गया है। इन बारह भागों में छह भागों का नाम रखा गया-अवसर्पिणी काल और छह भागों का नाम रखा गया-उत्सर्पिणी काल । एक काल ऐसा आता है जिसमें धीरे-धीरे सब वस्तुओं का ह्रास होता चला जाता है। उस काल को अवसर्पिणी काल कहा गया । एक काल ऐसा आता है, जिसमें सब वस्तुओं का विकास होता चला जाता है, उसे उत्सर्पिणी काल कहा गया। अभी हम जिस कालखंड में जी रहे हैं, उसका नाम है अवसर्पिणी काल । यौगलिक युग
इस कालचक्र के सिद्धांत के अनुसार पहला खंड बीता, दूसरा बीता और तीसरा बीता। जब तीसरा कालखंड बीत रहा था, तीसरे कालखंड के तीसरे भाग का भी थोड़ा भाग बच रहा था, उस समय इस विश्व की व्यवस्था ने एक मोड़ लिया, मनुष्य का इतिहास बदला। एक नया मोड़ आया मनुष्य जाति के इतिहास में । इस विश्व को कुलकरों ने प्रभावित किया। पहले यौगलिक युग था। उसमें समाज जैसी व्यवस्था नहीं थी। एक जोड़ा जन्म लेता, वह सहज संयम का जीवन जीता और अन्तिम समय में एक जोड़े को जन्म देकर विदा हो जाता। न कोई व्यापार था, न कोई व्यवसाय था, न कोई राज्य-शासन था और न कोई व्यवस्था थी। एक प्रकार का पूरा जंगली जीवन था। उसे जीने वाले मनुष्य यौगलिक मनुष्य कहलाते थे। वे सहज धार्मिक थे। न कोई धर्म का प्रवर्तन था और न कोई धर्म का उपदेश देने वाला था। उनका जीवन शांत था, क्रोध, मान, माया और लोभ सहज शांत थे। न झगड़ा, न ईर्ष्या और न चुगली, कुछ भी नहीं। वे शांतिपूर्ण जीवन सम्पन्न कर मरने के बाद स्वर्ग में जाते। उस युग में सहज शांत जीवन की सारी प्रणाली चल रही थी। किन्तु जब तीसरा कालखंड अन्तिम क्षणों में आया, युग में परिवर्तन आने लगा, संतति का विकास होने लगा। जहां संतति बढ़ी, आबादी बढ़ी, वहां समस्याएं भी
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