________________
कालचक्र और कुलकर है, सब यौगिक है। कहना चाहिए-जितना दिखाई दे रहा है जो दृश्य जगत् है, वह सारा का सारा जीव और पुद्गल का यौगिक स्वरूप है। न कोई शुद्ध जीव है और न कोई शुद्ध पुद्गल । यदि पुद्गल है तो वह जीव के द्वारा छोड़ा हुआ पुद्गल है । सूक्ष्म पुद्गल हमें दिखाई नहीं देता। विश्व रचना के मूल तत्त्व
कुछ दार्शनिकों ने माना-विश्व की रचना का मूल तत्त्व है- पंचभूत । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-इन पांच महाभूतों से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैन दर्शन ने पांच भूतों को स्वीकृति नहीं दी। उसके अनुसार जीव और अजीव-इन दो के योग से सृष्टि का निर्माण हुआ है । इस योग में पृथ्वी भी है, पानी भी है, अग्नि भी है और वायु भी है। किन्तु आकाश अलग पड़ जाता है। आकाश एक स्वतंत्र द्रव्य है। वह इन चारों के साथ नहीं आता, वह यौगिक नहीं है।
सारा संसार पुद्गलों और जीवों के योग से बनता है। दोनों का योग मिला और व्यंजन पर्याय घटित हो गया। व्यंजन पर्याय यानी प्रगट होने वाला पर्याय । गाय ने घास खाई और दूध बन गया, यह व्यंजन पर्याय है । प्रश्न हुआ---दध कहां से आया? क्या दूध का अस्तित्व गाय में है। क्या दूध का अस्तित्व घास में है ? अगर गाय में है तो घास कभी दूध नहीं देगी, उसका अस्तित्व न गाय में है, न घास में है किन्तु दोनों के योग में है। गाय और घास-दोनों का योग मिला और एक नया पर्याय बन गया। दूध हमारे सामने प्रस्तुत हो गया। ऐसे नाना प्रकार के योग बनते हैं, जिनकी गणना नहीं की जा सकती। असंख्य योग बनते हैं और असंख्य पदार्थ बनते चले जाते हैं। प्रश्न बदलाव का
• छठा प्रश्न है-क्या यह यौगिक जगत् बदलता ही रहता है।
कहा गयाऐसा नहीं है। निरन्तर परिवर्तन के बीच भी एक तत्त्व ऐसा है, जो अपरिवर्तित रहता है । जीव और अजीव-दोनों में परिवर्तन का चक्र चल रहा है। किन्तु दोनों के बदलाव में एक न बदलने वाला तत्त्व भी बैठा है। जैन दर्शन में तीन तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । पदार्थ उत्पन्न होता है, विनष्ट होता है और ध्रुव भी रहता है। एक ध्रुव तत्त्व ऐसा है, जो उत्पाद और व्यय के बीच बैठा है । वैदिक दर्शन ने सृष्टि का उत्पाद और लय माना । सृष्टि की उत्पत्ति होती है और उसका लय होता है मूल कारण में । मूल कारण है ईश्वर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org