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________________ कर्मवाद भारत के सभी आस्तिक दर्शनों में जगत् की विभक्ति, विचित्रता और साधन-तुल्य होने पर भी फल के तारतम्य या अन्तर को सहेतुक माना है। उस हेतु को वेदान्ती 'अविद्या', बौद्ध 'वासना' सांख्य 'क्लेश' और न्याय-वैशेषिक 'अदष्ट' तथा जैन 'कर्म' कहते हैं। कई दर्शन कर्म का सामान्य निर्देश-मात्र करते हैं और कई उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करते-करते बहुत आगे बढ़ जाते हैं। न्याय-दर्शन के अनुसार अदष्ट आत्मा का गुण है। अच्छे-बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार पड़ता है, वह अदृष्ट है। जब तक उसका फल नहीं मिल जाता, तब तक वह आत्मा के साथ रहता है, उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है। कारण कि यदि ईश्वर कर्मफल की व्यवस्था न करे तो कर्म निष्फल हो जाएं। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार मानता है। अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है। उस प्रकृतिगत-संस्कार से ही कर्मों के फल मिलते है। बौद्धों ने चित्तगत वासना को कर्म माना है। यही कार्य-कारणभाव के रूप में सुख-दुःख का हेतु बनती है। ___ जैन-दशन कर्म को स्वतंत्र तत्त्व मानता है। कर्म अनन्त परमाणओं के स्कन्ध हैं। वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छीबुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बन्ध जाते हैं, यह उनकी बध्यमान (बंध) अवस्था है । बंधने के बाद उनका परिपाक होता है, वह सत् (सत्ता) अवस्था है। परिपाक के बाद उनसे सुख-दुःखरूप तथा आवरणरूप फल मिलता है, वह उदयमान (उदय) अवस्था है। अन्य दर्शनों में कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध-ये तोन अवस्थाएं बताई गई हैं। वे ठीक क्रमश: बन्ध, सत् और उदय की समानार्थक हैं । बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश–ये चार प्रकार हैं। उदीरणा-कर्म का शीघ्र फल मिलना, उद्वतन-कर्म की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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