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आत्मवाद
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यह नहीं होती, वह प्राणी भी नहीं होता । इस समस्या को शास्त्रकारों ने स्याद्वाद के आधार पर सुलझाया है ।
गौतम ने पूछा - भगवन् ! एक जन्म से दूसरे जन्म में व्युत्क्रम्यमाण जीव स-इन्द्रिय होता है या अन - इन्द्रिय ?
भगवान् महावीर ने कहा- गौतम ! द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा से जीव अन-इन्द्रिय व्युत्क्रांत होता है और लब्धीन्द्रिय की अपेक्षा से स- इन्द्रिय
आत्मा में ज्ञानेन्द्रिय की शक्ति अन्तरालगति में भी होती है । त्वचा, नेत्र आदि सहायक इन्द्रियां नहीं होतीं । उसे स्व-संवेदन का अनुभव होता है । किंतु सहायक इन्द्रियों के अभाव में इंद्रिय-शक्ति का उपयोग नहीं होता । सहायक इन्द्रियों का निर्माण स्थूल शरीररचना के समय इन्द्रिय-ज्ञान की शक्ति के अनुपात पर होता है । एक इंद्रिय की योग्यता वाले प्राणी की शरीर रचना में त्वचा के सिवाय और इन्द्रियों की आकृतियां नहीं बनतीं । द्वीन्द्रिय आदि जातियों में क्रमशः रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र की रचना होती है । दोनों प्रकार की इन्द्रियों के सहयोग से प्राणी इन्द्रिय- ज्ञान का उपयोग करते हैं ।
स्व-नियमन
जीव स्वयं-चालित है । स्वयं चालित का अर्थ पर - सहयोग - निरपेक्ष नहीं, किंतु संचालक - निरपेक्ष है । जीव की प्रतीति उसी के उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम से होती है । उत्थान आदि शरीर से उत्पन्न हैं । शरीर जीव द्वारा निष्पन्न है । क्रम इस प्रकार बनता है— जीवप्रभव शरीर, शरीर - प्रभव वीर्य, वीर्यप्रभव योग ( मन, वाणी और कर्म ) ।
दो प्रकार का होता है - लब्धि-वीर्य और करण - वीर्य । लब्धि-वीयं सत्तात्मक शक्ति है । उसकी दृष्टि से सब जीव सवीर्य होते हैं । करण - वीर्य क्रियात्मक शक्ति है । यह जीव और शरीर दोनों के सहयोग से उत्पन्न होती है ।
जीव में सक्रियता होती है, इसलिए वह पौद्गलिक कर्म का संग्रह या स्वीकरण करता है । वह पौद्गलिक कर्म का संग्रहण करता है, इसलिए उससे प्रभावित होता है ।
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