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जनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा वह अपने मालिक तथा खाद्य तक को नहीं पहचान पाता। फिर भी वह मरा नहीं। इंजेक्शनों द्वारा उसे खाद्य तत्त्व दिया जाता रहा । इस प्रयोग पर उन्होंने यह बताया कि दिमाग ही चेतना है। उसके निकल जाने पर प्राणी में कुछ भी चैतन्य नहीं रहता।
इस पर हमें अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं। यहां सिर्फ इतना समझना ही पर्याप्त होगा कि दिमाग चेतना का उत्पादक नहीं, किन्तु वह मानस प्रवृत्तियों के उपयोग का साधन है। दिमाग निकाल लेने पर उसकी मानसिक चेष्टाएं रुक गईं, इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी चेतना विलीन हो गई। यदि ऐसा होता तो वह जीवित नहीं रह पाता। खाद्य स्वीकरण, रक्त-संचार, प्राणअपान आदि चेतनावान् प्राणी में ही होता है। बहुत सारे ऐसे भी प्राणी हैं, जिनके मस्तिष्क होता ही नहीं। वह केवल मानस-प्रवृत्ति वाले प्राणी के ही होता है । वनस्पति भी आत्मा है। उनमें चेतना है; हर्ष, शोक, भय आदि प्रवृत्तियां हैं। पर उनके दिमाग नहीं होता। चेतना का सामान्य लक्षण स्वानुभव है। जिसमें स्वानुभूति होती है, सुख-दुःख का अनुभव करने की क्षमता होती है, वही आत्मा है। फिर चाहे वह अपनी अनुभूति व्यक्त कर सके या न कर सके, उसको व्यक्त करने के साधन मिलें या न मिलें । वाणीविहीन प्राणी को प्रहार से कष्ट नहीं होता, यह मानना यौक्तिक नहीं। उसके पास बोलने का साधन नहीं, इसलिए अपना कष्ट कह नहीं सकता। फिर भी वह कष्ट का अनुभव कैसे नहीं करेगा ? विकासशील प्राणी मूक होने पर भी अपनी अंग-संचालन-क्रिया से पीड़ा जता सकते हैं। जिनमें यह शक्ति भी नहीं होती, वे किसी भी अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं कर सकते । इससे स्पष्ट है कि बोलना, अंगसंचालन होते दीखना, चेष्टाओं को व्यक्त करना, ये आत्मा के व्यापक लक्षण नहीं हैं। ये केवल विशिष्ट शरीरधारी यानी त्रसजातिगत आत्माओं के होते हैं। स्थावर जातिगत आत्माओं में ये स्पष्ट लक्षण नहीं मिलते। इससे उनकी चेतनता, सुख-दुःखानुभूति का लोप थोड़े ही किया जा सकता है। स्थावर जीवों की कष्टानुभूति की चर्चा करते हुए शास्त्रों में लिखा है-'जन्मान्ध, जन्म-मूक, जन्म-बधिर एवं रोगग्रस्त पुरुष के शरीर का कोई युवा तलवार एवं खड्ग से ३२ स्थानों का छेदन-भेदन करे, उस समय उसे जैसा कष्ट
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