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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा शब्दों में मन और मस्तिष्क पर्यायवाची शब्द हैं। पावलोफ ने इसका समर्थन किया है कि स्मृति मस्तिष्क (सेरेब्रम) के करोड़ों सेलों (Cells) की क्रिया है। बर्गसां जिस युक्ति के बल पर आत्मा के अस्तित्व की आवश्यकता अनुभव करता है, उसके मूलभूत तथ्य स्मृति को पावलोफ मस्तिष्क के सेलों (Cells) की क्रिया बतलाता है। फोटो के नेगेटिव प्लेट में जिस प्रकार प्रतिबिम्ब खींचे हए होते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क में अतीत के चित्र प्रतिबिम्बित रहते हैं। जब उन्हें तद्नुकूल सामग्री द्वारा नयी प्रेरणा मिलती है तब वे जागृत हो जाते हैं, निम्न स्तर से ऊपरी स्तर में आ जाते हैं, इसी का नाम स्मृति है । इसके लिए भौतिक तत्त्वों से पृथक् अन्वयी आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं। भूताद्वैतवादी वैज्ञानिकों ने भौतिक प्रयोग के द्वारा अभौतिक सत्ता का नास्तित्व सिद्ध करने की बहमुखी चेष्टायें की हैं, फिर भी भौतिक प्रयोगों का क्षेत्र भौतिकता तक ही सीमित रहता है, अमूर्त आत्मा या मन का नास्तित्व सिद्ध करने में उसका अधिकार सम्पन्न नहीं होता। मन भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार का होता है।
मनन, चिन्तन, तर्क, अनुमान, स्मृति 'तदेवेदम्' इस प्रकार संकलनात्मक ज्ञान–अतीत और वर्तमान ज्ञान की जोड़ करना, ये कार्य अभौतिक मन के हैं। भौतिक मन उसकी ज्ञानात्मक प्रवृत्ति का साधन है। इसे हम मस्तिष्क का 'औपचारिक ज्ञान-तंतु' भी कह सकते हैं । मस्तिष्क शरीर का अवयव है। उस पर विभिन्न प्रयोग करने पर मानसिक स्थिति में परिवर्तन पाया जाए, अर्ध-स्मरण या विस्मरण आदि मिले, यह कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं। क्योंकि कारण के अभाव में कार्य अभिव्यक्त नहीं होता, यह निश्चित तथ्य हमारे सामने है । भौतिकवादी तो मस्तिष्क भी भौतिक है या और कुछ-इस समस्या में उलझे हुए हैं। वे कहते हैं मन सिर्फ भौतिक तत्त्व नहीं है। ऐसा होने कर उसके विचित्र गुण-चेतन-क्रियाओं की व्याख्या नहीं हो सकतीं। मन (मस्तिष्क ) में ऐसे नये गुण देखे जाते हैं, जो पहले भौतिक-तत्त्वों में मौजूद न थे, इसलिए भौतिकतत्त्वों और मन को एक नहीं कहा जा सकता। साथ ही भौतिकतत्त्वों से मन इतना दूर भी नहीं है कि उसे बिलकुल ही एक अलग तत्त्व माना जाए।
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