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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा लिए आम परोक्ष है । परोक्ष वस्तु क विषय में या तो हमारा ज्ञान ही नहीं होता, यदि सुन या पढ़ कर ज्ञान होता है तो वह साधकबाधक तर्कों की कसौटी से कसा हुआ होता है। साधक प्रमाण बलवान होते हैं तो हम परोक्ष वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं, और बाधक प्रमाण बलवान् होते हैं तो हम उसके अस्तित्व को नकार देते हैं।
___भारत में जैसे आम प्रत्यक्ष है, वैसे ही आत्मा प्रत्यक्ष होती तो भारतीय दर्शन का विकास आठ आना ही हुआ होता। आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है। उसका चितन, मंथन, मनन और दर्शन भारत में इतना हुआ है कि आत्मवाद भारतीय दर्शन का प्रधान अंग बन गया। यहां अनात्मवादी भी रहे हैं, किन्तु आत्मवादियों की तुलना में आटे में नमक जितने ही रहे हैं । अनात्मवादियों की संख्या भलेही कम रही हो, उनके तर्क कम नहीं रहे हैं। उन्होंने समय-समय पर आत्मा के बाधक-तर्क प्रस्तुत किये हैं। उनके विपक्ष में आत्मवादियों द्वारा आत्मा के साधक-तर्क प्रस्तुत किए गए। संक्षेप में उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है। १. स्व-संवेदन
अपने अनुभव से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। 'मैं हूं' 'मैं सुखी हूं', 'मैं दु:खी हूं'-यह अनुभव शरीर को नहीं होता, किन्तु उसे होता है जो शरीर से भिन्न है। शंकराचार्य के शब्दों में'सर्वोप्यात्माऽस्तित्व प्रत्येति न नाहमस्मीति'-सबको यह विश्वास होता है कि 'मैं हूं'। यह विश्वास किसी को नहीं होता कि 'मैं नहीं
२. अत्यन्ताभाव
इस तार्किक नियम के अनुसार चेतन और अचेतन में त्रैकालिक विरोध है । जैन-आचार्यों के शब्दों में 'न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए और अजीव जीव बन जाए।' ३. उपादान कारण
इस तार्किक नियम के अनुसार जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होती है। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते।
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