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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा नाश हो जाता है। जीवात्मा कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। जिस प्रकार अरणि की लकड़ी से अग्नि, दूध से घी और तिलों से तेल पैदा होता है, वैसे ही पंच भूतात्मक शरीर से जीव उत्पन्न होता है। शरीर नष्ट होने पर आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं रहती।
___इस प्रकार दोनों प्रवाहों से जो धाराएं निकलती है, वे हमारे सामने हैं। हमें इनको अथ से इति तक परखना चाहिए, क्योंकि इनसे केवल दार्शनिक दृष्टिकोण ही नहीं बनता, किन्तु वैयक्तिक जीवन से लेकर सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक जीवन की नींव इन्हीं पर खड़ी होती है। क्रियावादी और अक्रियावादी का जीवनपथ एक नहीं हो सकता । क्रियावादी के प्रत्येक कार्य में आत्म-शुद्धि का खयाल होगा, जबकि अक्रियावादी को उसकी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती । आज बहुत सारे क्रियावादी भी हिंसाबहुल विचारधारा में बह चले हैं । जीवन की क्षणभंगुरता को बिसार कर महारम्भ और महापरिग्रह में फंसे हुए हैं। जीवन-व्यवहार में यह समझना कठिन हो रहा है कि कौन क्रियावादी है और कौन अक्रियावादी ? अक्रियावादी सदर भविष्य की न सोचें तो कोई आश्चर्य नहीं। क्रियावादी आत्मा को भला बैठे, आगे-पीछे न देखें तो कहना होगा कि वे केवल परिभाषा में क्रियावादी हैं, सही अर्थ में नहीं। भविष्य को सोचने का अर्थ वर्तमान में आंख मूंद लेना नहीं है ! भविष्य को समझने का अर्थ है वर्तमान को सुधारना । आज के जीवन की सुखमय साधना ही कल को सुखमय बना सकती है। विषय वासनाओं में फंसकर आत्म-शुद्धि की उपेक्षा करना क्रियावादी के लिए प्राणघात से भी भयंकर है। उसे आत्म-अन्वेषणा करना चाहिए।
आत्मा और परलोक की अन्वेषक परिषद् के सदस्य सर ओलिवर लॉज ने इस अन्वेषण का मूल्यांकन करते हुए लिखा है"हमें भौतिक ज्ञान के पीछे पड़कर पारभौतिक विषयों को नहीं भूल जाना चाहिए। चेतन जड़ का कोई गुण नहीं, परन्तु उसमें समायी हुई अपने को प्रदर्शित करनेवाली एक स्वतंत्र सत्ता है। प्राणीमात्र के अन्तर्गत एक ऐसी वस्तु अवश्य है जिसका शरीर के नाश के साथ अन्त नहीं हो जाता । भौतिक और पारभौतिक संज्ञाओं के पारस्परिक नियम क्या हैं, इस बात का पता लगाना अत्यन्त आवश्यक हो गया है।" |
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