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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
मार्ग को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग में जाने वाला गाड़ीवान रथ की
धुरी टूट जाने पर पछताता है ।'
अक्रियावादियों ने कहा---' यह सबसे दृष्ट सुखों को छोड़कर अदृष्ट सुख को पाने ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं, प्रत्यक्ष हैं । जो पीछे होनेवाला है, न जाने कब क्या होगा ? परलोक किसने देखा है ? कौन जानता है कि परलोक है या नहीं ? जन-समूह का एक बड़ा भाग सांसारिक सुखों का उपभोग करने में व्यस्त है, तब फिर हम क्यों न करें ? जो दूसरों को होगा, वही हमको भी होगा । हे प्रिये ! चिन्ता करने जैसी कोई बात नहीं, खूब खा-पी आनन्द कर, जो कुछ कर लेगी, वह तेरा है । मृत्यु के बाद आना-जाना कुछ भी नहीं । कुछ लोग परलोक के दुःखों का वर्णन कर-कर जनता को प्राप्त सुखों से विमुख किए देते हैं। पर यह अतात्त्विक है ।'
बड़ी मूर्खता है कि लोग की दौड़ में लगे हैं ।
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क्रियावाद की विचारधारा में वस्तुस्थिति स्पष्ट हुई। लोगों संयम सीखा । त्याग तपस्या को जीवन में उतारा ।
अक्रियावाद की विचार-प्रणाली से वस्तुस्थिति ओझल रही । लोग भौतिक सुखों की ओर मुड़े ।
क्रियावादियों ने कहा - सुकृत और दुष्कृत का फल होता है । शुभ कर्मों का फल अच्छा और अशुभ कर्मों का फल बुरा होता है । जीव अपने पाप एवं पुण्य कर्मों के साथ ही परलोक में उत्पन्न होते हैं। पुण्य और पाप दोनों का क्षय होने से असीम आत्म-सुखमय मोक्ष मिलता है ।'
फलस्वरूप लोगों में धर्मरुचि पैदा हुई । अल्प- इच्छा, अल्पआरम्भ और अल्प - परिग्रह का महत्त्व बढ़ा । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इनकी उपासना करने वाला महान् समझा जाने लगा ।
अक्रियावादियों ने कहा – 'सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं होता । शुभ कर्मों के शुभ और अशुभ कर्मों के अशुभ फल नहीं होते । आत्मा परलोक में जाकर उत्पन्न नहीं होता ।'
फलस्वरूप लोगों में सन्देह बढ़ा । भौतिक लालसा प्रबल हुई । महा-इच्छा, महा-आरम्भ और महा - परिग्रह का राहु जगत् पर छा
गया ।
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