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गर्भ
जैन दर्शन में तत्त्व-मीमांसा
प्राणी की उत्पत्ति का पहला रूप दूसरे में छिपा होता है, इसलिए उस दशा का नाम 'गर्भ' हो गया । जीवन का अन्तिम छोर जैसे मौत है, वैसे उसका आदि छोर गर्भ है । मौत के बाद क्या होगा - यह जैसे अज्ञात रहता है, वैसे ही गर्भ से पहले क्या था— यह अज्ञात रहता है । उन दोनों के बारे में विवाद है । गर्भ प्रत्यक्ष है, इसलिए यह निर्विवाद है ।
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मौत क्षण भर के लिए आती है । गर्भ महीनों तक चलता है इसलिए जैसे मौत अन्तिम दशा का प्रतिनिधित्व करती है, वैसे गर्भ जीवन के आरंभ का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं करता, इसलिए प्रारंभिक दशा का प्रतिनिधि शब्द और चुनना पड़ा। वह है - ' जन्म' | 'जन्म' ठीक जीवन की आदि रेखा का अर्थ देता है । जो प्राणी है, वह जन्म लेकर ही हमारे सामने आता है । जन्म की प्रणाली सब प्राणियों की एक नहीं है । भिन्न-भिन्न प्राणी भिन्न-भिन्न ढंग से जन्म लेते हैं । एक बच्चा मां के पेट में जन्म लेता है और पौधा मिट्टी में । बच्चे की जन्म प्रक्रिया पौधे की प्रक्रिया से भिन्न है । बच्चा स्त्री और पुरुष के रज तथा वीर्य के संयोग से उत्पन्न होता है। पौधा बीज से पैदा हो जाता है । इस प्रक्रिया भेद के आधार पर जैन आगम जन्म के दो विभाग करते हैं - गर्भ और सम्मूर्च्छन । स्त्री-पुरुष के संयोग से होने वाले जन्म को गर्भ और उनके संयोग निरपेक्ष जन्म को सम्मूर्च्छन कहा जाता है । साधारणतया उत्पत्ति और अभिव्यक्ति के लिए गर्भ शब्द का प्रयोग सब जीवों के लिए होता है । स्थानांग में बादलों के गर्भ बतलाए हैं । किन्तु जन्म-भेद की प्रक्रिया के प्रसंग में 'गर्भ' का उक्त विशेष अर्थ में प्रयोग हुआ है । चैतन्य - विकास की दृष्टि से भी 'गर्भ' को विशेष अर्थ में रूढ़ करना आवश्यक है । एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और मातापिता के संयोग निरपेक्ष जन्म पाने वाले प्राणी वर्गों में मानसिक विकास नहीं होता है। माता-पिता के संयोग से जन्म पाने वाले जीवों में मानसिक विकास होता है । इस दृष्टि से समनस्क जीव की जन्म प्रक्रिया गर्भ और अमनस्क जीवों की जन्म प्रक्रिया 'सम्मूर्छन ' - ऐसा विभाग करना आवश्यक था । जन्म विभाग के आधार पर चैतन्य विकास का सिद्धांत स्थिर होता है - गर्भज समनस्क
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