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विश्व : विकास और ह्रास
द्वारा औपचारिक परिवर्तन के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। मौलिक परिवर्तन प्रयोग-सिद्ध नहीं हैं। इसलिए जातिगत औपचारिक परिवर्तन के आधार पर क्रम-विकास की धारणा मूल्यवान् नहीं बन सकती। शारीरिक परिवर्तन का ह्रास या उल्टा क्रम
पारिपाश्विक वातावरण या बाहरी स्थितियों के कारण जैसे विकास या प्रगति होती है, वैसे ही उनके बदलने पर ह्रास या पूर्वगति भी होती है।
इस दिशा में सबसे आश्चर्यजनक प्रयोग है-म्यूनिख की जंतुशाला के डाइरेक्टर श्री हिजहेक के, जिन्होंने विकासवाद की गाड़ी ही आगे से पीछे की ओर ढकेल दी है और ऐसे घोड़े पैदा किये हैं, जैसे कि पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व होते थे। प्रागैतिहासिक युग के इन घोड़ों को इतिहासकार 'टरपन' कहते हैं।
__इससे जाना जाता है कि शरीर, संहनन, संस्थान और रंग का परिवर्तन होता है। उससे एक जाति के अनेक रूप बन जाते हैं, किन्तु मूलभूत जाति नहीं बदलती।
दो जाति के प्राणियों के संगम से तीसरी एक नयी जाति पैदा होती है। उस मिश्र जाति में दोनों के स्वभाव मिलते हैं, किन्तु यह भी शारीरिक भेद वाली उपजाति है। आत्मिक ज्ञानकृत जैसे ऐन्द्रियिक और मानसिक शक्ति का भेद उनमें नहीं होता। जाति-भेद का मूल कारण है-आत्मिक विकास । इन्द्रियां, स्पष्ट भाषा और मन, इनका परिवर्तन मिश्रण और काल-क्रम से नहीं होता। एक स्त्री के गर्भ में 'गर्भ-प्रतिबिम्ब' पैदा होता है, जिसके रूप भिन्नभिन्न प्रकार के हो सकते हैं। आकृति-भेद की समस्या जाति-भेद में मौलिक नहीं है। प्रभाव के निमित्त
एक प्राणी पर माता-पिता का, आसपास के वातावरण का, देश-काल की सीमा का, खान-पान का और ग्रहों-उपग्रहों का अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इसके जो निमित्त हैं, उन पर जैन-दृष्टि का क्या निर्णय है-यह थोड़े में जानना है।
प्रभावित स्थितियों को वर्गीकृत कर हम दो मान लें
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