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________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा शरीराश्रयी स्थिति में कोई संदेह नहीं होता । आग में तपा लोहे का गोला अग्निमय होता है, वैसे साधारण वनस्पति शरीर जीवमय होता है। साधारण-वनस्पति जीवों का परिमाण ___ लोकाकाश के असंख्य प्रदेश हैं। उसके एक-एक आकाश-प्रदेश पर एक-एक निगोद-जीव को रखते चले जाइए। वे एक लोक में नहीं समायेंगे, दो-चार में भी नहीं। वैसे अनन्त लोक आवश्यक होंगे। इस काल्पनिक संख्या से उनका परिमाण समझिए। उनकी शारीरिक स्थिति संकीर्ण होती है। इसी कारण ससीम लोक में समा रहे हैं। प्रत्येक वनस्पति प्रत्येक-वनस्पति जीवों के शरीर पृथक्-पृथक् होते हैं। प्रत्येक जीव अपने शरीर का निर्माण स्वयं करता है। उनमें पराश्रयता भी होती है। एक घटक जीव के आश्रय में असंख्य जीव पलते हैं। वक्ष के घटक बीज में एक जीव होता है। उसके आश्रय में पत्र, पुष्प और फूल के असंख्य जीव उपजते हैं। बीजावस्था के सिवाय वनस्पति-जीव संघातरूप में रहते हैं। श्लेष्म-द्रव्य-मिश्रित सरसों के दाने अथवा तिलपपड़ी के तिल एक रूप बन जाते हैं । तब भी उनकी सत्ता पृथक्-पृथक् रहती है। प्रत्येक-वनस्पति के शरीरों को भी यही बात है। शरीर की संघात-दशा में भी उनकी सत्ता स्वतंत्र रहती है। प्रत्येक वनस्पति जीवों का परिमाण साधारण-वनस्पति जीवों की भांति प्रत्येक-वनस्पति का एक-एक जीव लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रखा जाए तो ऐसे असंख्य लोक बन जाएं । यह लोक असंख्य आकाश-प्रदेश वाला है, ऐसे असंख्य लोकों के जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने प्रत्येकशरीरी वनस्पति जीव हैं। क्रम-विकासवाद के मूल सूत्र डार्विन का सिद्धांत चार मान्यताओं पर आधारित है१. पितृ नियम-समान में से समान संतति की उत्पत्ति । २. परिवर्तन का नियम-निश्चित दशा में सदा परिवर्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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