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विश्व : विकास और हास
४. अंतरंग अयोग्यता और बहिरंग प्रतिकूलता - कार्य उत्पन्न नहीं होता ।
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प्रत्येक प्राणी में दस संज्ञाएं और जीवन-सुख की आकांक्षाएं होती हैं । उनमें तीन एषणाएं भी होती हैं
१. प्राणषणा - मैं जीवित रहूं ।
२. पुत्रैषणा - मेरी संतति चले । ३. वित्तैषणा - मैं धनी बनूं ।
अर्थ और काम की इस आंतरिक प्रेरणा तथा भूख, प्यास, ठंडक, गर्मी आदि-आदि बाहरी स्थितियों के प्रभाव से प्राणी की हर्मुखी वृत्तियों का विकास होता है । यह एक जीवनगत - विकास की स्थिति है । विकास का प्रवाह भी चलता है । एक पीढ़ी का विकास दूसरी पीढ़ी को अनायास मिल जाता है। किंतु उद्भिद्जगत् से लेकर मनुष्य-जगत् तक जो विकास है, वह पहली पीढ़ी के विकास की देन नहीं है । यह व्यक्ति - विकास की स्वतंत्र गति है । उद्भिद् जगत् से भिन्न जातियां उसकी शाखाएं नहीं, किन्तु स्वतन्त्र हैं । उद्भिद् जाति का एक जीव पुनर्जन्म के माध्यम से मनुष्य बन सकता है । यह जातिगत विकास नहीं, व्यक्तिगत विकास है ।
विकास होता है, इसमें दोनों विचार एक रेखा पर हैं । किंतु दोनों की प्रक्रिया भिन्न है । डार्विन के मतानुसार विकास जाति का होता है और जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति का । डार्विन को आत्मा और कर्म की योग्यता ज्ञात होती तो उनका ध्यान केवल जाति, जो कि बाहरी वस्तु है, के विकास की ओर नहीं जाता | आंतरिक योग्यता की कमी होने पर एक मनुष्य फिर से उद्भिद् जाति में जा सकता है, यह व्यक्तिगत ह्रास है ।
प्राणि - विभाग
प्राणी दो प्रकार के होते हैं-चर और अचर । अचर प्राणी पांच प्रकार के होते हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । चर प्राणियों के आठ भेद होते हैं - १. अंडज, २. पोतज, ३. जरायुज, ४. रसज, ५. संस्वेदज, ६. सम्मूच्छिम, उद्भिद्, ८. उपपातज ।
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