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________________ विश्व : विकास और ह्रास (ख) द्वीन्द्रिय। (ग) त्रीन्द्रिय। (घ) चतुरिन्द्रिय । (ङ) पंचेन्द्रिय""अमनस्क , समनस्क । प्रत्येक प्राणी इन सबको क्रमशः पार करके आगे बढ़ता है, यह बात नहीं। इनका उत्क्रमण भी होता है। यह प्राणियों की योग्यता का क्रम है, उत्क्रांति का क्रम नहीं । उत्क्रमण और अपक्रमण जीवों की आध्यात्मिक योग्यता और सहयोगी परिस्थितियों के समन्वय पर निर्भर है। दार्शनिकों का 'ध्येयवाद' भविष्य को प्रेरक मानता है और वैज्ञानिकों का 'विकासवाद' अतीत को। ध्येय की ओर बढ़ने से जीव का आध्यात्मिक विकास होता है--ऐसी कुछ दार्शनिकों की मान्यता है। किंतु ये दार्शनिक विचार भी बाह्य प्रेरणा है। आत्मा स्वत: स्फर्त है। वह ध्येय की ओर बढ़ने के लिए बाध्य नहीं, स्वतंत्र है। ध्येय की उचित रीति समझ लेने के बाद वह उसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न कर सकती है। उचित सामग्री मिलने पर वह प्रयत्न सफल भी हो सकता है। किंतु 'ध्येय की ओर प्रगति' का यह सर्वसामान्य नियम नहीं है। यह काल, स्वभाव, नियति, उद्योग आदि विशेष सामग्री-सापेक्ष है। वैज्ञानिक विकासवाद बाह्य स्थितियों का आकलन है। अतीत की अपेक्षा से विकास की परंपरा आगे बढ़ती है, यह निश्चित सत्य नहीं है। किन्ही का विकास हुआ है तो किन्हीं का ह्रास भी हआ है। अतीत ने नयी आकृतियों की परम्परा को आगे बढ़ाया है, तो वर्तमान ने पुराने रूपों को अपनी गोद में समेटा भी है। इसलिए अकेले अवसर की दी हई अधिक स्वतंत्रता मान्य नहीं हो सकती। विकास बाह्य परिस्थिति द्वारा परिचालित हो-आत्मा अपने से बाहर वाली शक्ति से परिचालित हो तो वह स्वतंत्र नहीं हो सकती। परिस्थिति का दास बनकर आत्मा कभी अपना विकास नहीं साध सकती। पुदगल की शक्तियों का विकास और ह्रास-ये दोनों सदा चलते हैं। इनके विकास या ह्रास का निरवधिक चरम रूप नहीं है। शक्ति की दृष्टि से एक पौद्गलिक स्कंध में अनन्त-गुण तारतम्य हो जाता है। आकार-रचना की दृष्टि से एक-एक परमाणु मिलकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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