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________________ २२४ तमसो मा ज्योतिर्गमय इसका अपराध भयंकर है तथा मन में पश्चात्ताप या सुधरने की विचार की आशा भी नहीं दिखाई देती । इसलिए इसे फांसी की सजा न देना, न्याय का उल्लंघन होगा । न्यायाधीश ने न्याय की रक्षा के लिए कानून की रूह से बड़े संकोच के साथ उसको फाँसी की सजा सुना दी और फाँसी लगाने का आदेश भी दे दिया । फाँसी लगाने वाला मन में सोचने लगा- मैं नहीं चाहता कि किसी को फाँसी लगाऊँ । लेकिन सरकार द्वारा मैं इस कार्य पर नियुक्त हूँ । अतः कर्तव्य से इन्कार करना उचित नहीं । न्यायाधीश भी न्याय से बँधा हुआ है। इसी कारण उसने मुझे आदेश दिया है । मैं भी उसी तरह कर्तव्य AFT हुआ हूँ । इसी कारण मुझे भी फांसी लगाने का कार्य करना होगा । यों सोचता हुआ वह उस अपराधी को फाँसी लगाने के लिए ले गया और फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया । वहाँ एक तीसरा आदमी खड़ा था । न्यायाधीश ने तो संकोचवश अपराधी को फाँसी का हुक्म दिया था और फांसी लगाने वाले ने भी कर्तव्यवश उसे फाँसी के तख्ते पर चढ़ाया था, लेकिन उस तीसरे आदमी ने, जिसका कोई आदेश नहीं चलता था, अत्यन्त उत्तेजित होकर कहा - " लगा दे, जल्दी से इसे फाँसी ! क्या देखता है अब ? देर क्यों करता है ? इसे तो फाँसी देना ही ठीक है ।" बताइए, इन तीनों में ज्यादा पाप किसको हुआ ? न्यायाधीश तथा फाँसी लगाने वाले ने फाँसी देकर भी फाँसी के कार्य की सराहना नहीं की, लेकिन वह दर्शक मुफ्त में ही फाँसी लगाने के कार्य की अनावश्यक आज्ञा देकर महापापबन्ध कर रहा है । इसी प्रकार कहीं किसी लड़ाई के होने पर या दुर्घटना होने पर दुर्घटनाग्रस्त लोगों के प्रति सहानुभूति बताने के बजाय उसकी सराहना करे कि अच्छा हुआ । सिर फट गया, उसकी हड्डी टूट गई। ऐसे पापी को तो यही फल मिलना चाहिए था । यहाँ लड़ाई स्वयं न करने-कराने वालों से भी अधिक व्यर्थ ही पाप की गठरी अनुमोदनकर्ता अपने सिर पर लाद लेता है । इस प्रकार के अनुमोदन की व्यर्थ हिंसा श्रावक के लिए कथमपि क्षम्य नहीं है। यहाँ करने - करवाने की अपेक्षा अनुमोदन में अधिक पाप है । इन सब बातों पर गम्भीरता से विचारने पर स्पष्ट हो जाता है कि कहीं दूसरों से कराने की अपेक्षा स्वयं करने में कम पाप है, कहीं करने की अपेक्षा कराने में कम पाप है और कहीं करने-कराने की अपेक्षा अनुमोदन में कम पाप है । चिन्तन के सागर में गहरा गोता लगाने पर ही ये सब बातें स्पष्ट हो सकती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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