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हिंसा-अहिंसा की परख
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मौत हुई है । वह ऑपरेशन न करता तो रोगी क्यों मरता ? सम्भव है, रोगी के रिश्तेदार भी उक्त चिकित्सक को भला बुरा कहें; मूर्ख, अनाड़ी या लापरवाह कहें । सारे शहर में उसकी बदनामी होने से शायद उसकी प्रेक्टिस को भी धक्का पहुँचे । यह सब तो बाह्य दृष्टि से देखने वालों की बातें हैं । शास्त्रकार की दृष्टि तो बड़ी पैनी है, वह तो सिद्धान्त के कांटे में तौल-तौल कर निर्णय देता है । शास्त्रकार की दृष्टि में चिकित्सक हिंसा के दोष का भागी नहीं है । उसने बिलकुल सावधानी के साथ, ईमानदारीपूर्वक हृदय में रोगी के प्रति करुणाभाव रख कर शल्य चिकित्सा की है । ऐसी स्थिति में बीमार को चिकित्सक ने कतई मारा नहीं है, वह स्वतः अपनी मौत से मरा है । यह बात दूसरी है कि चिकित्सक उसमें निमित्त बन गया है । परन्तु इस घटना में द्रव्यहिंसा हुई है, ऐसा कहा जा सकता है; भावहिंसा कतई नहीं हुई । अतः चिकित्सक पुण्य का भागी जरूर हुआ है, पाप का भागी कतई नहीं। क्योंकि पुण्य-पाप का सम्बन्ध तो कर्ता के भावों पर निर्भर है, कोरी क्रिया से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है ।
हिंसा और अहिंसा का निर्णय करने में लोकदृष्टि काम नहीं आती, वहाँ सिद्धान्तदृष्टि ही वास्तविक निर्णायक माननी चाहिए । लोकदृष्टि से तो प्रथम विकल्प में बाहर से हिंसक प्रतीत न होते हुए हिंसक है, और दूसरे विकल्प में बाहर से हिसक प्रतीत होते हुए भी अहिंसक है ।
इन दोनों भंगों की तुलना करके देखेंगे तो आपको बहुत आश्चर्य होगा । पहले भंग में केवल भावहिंसा है और दूसरे में केवल द्रव्यहिंसा । दोनों में रात-दिन का अन्तर है । वह अन्तर केवल परिणाम और प्रयोग का है ।
अब आप तीसरे भंग (विकल्प) को पकड़िए । तीसरा भंग है - जहाँ भावहसा भी हो, द्रव्यहसा भी । इस विकल्प में दोहरी हिंसा समाई हुई है । अन्तर्मन में किसी को मारने, सताने, दुःख या हानि पहुँचे का दुर्विकल्प भी आ गया और उसके अनुसार मारने, सताने, दुःख या हानि पहुँचाने आदि की क्रिया भी कर ली। इस विकल्प के तो अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
अमेरिका ने जापान को दबाने और अपने अधीन करने का दुर्विकल्प किया और साथ ही इसके लिए उपाय के रूप में अणुबम का प्रयोग करने का विचार भी किया । यह हुई भावहिंसा और तदनुसार उस दुर्विकल्प को
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