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________________ सुझाव देने में कोई भूल हो जाती है तो उसका बुरा परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि सुझाव सुनिश्चित भाषा में हो और वह पहले से ही सुस्थिर हो। तत्काल कोई सुझाव नहीं देना चाहिए। सुझाव की भाषा विधायक हो और पहले ही यह जांच कर ली जाए कि उस भाषा में कोई त्रुटि तो नहीं है। ऐसे ही आत्म-सम्मोहन का कार्य शुरू कर दिया और जो मन में आया वह सुझाव देने लगे तो संभव है जो होने का है वह नहीं होगा और जो नहीं होने का है वह हो जायेगा। ___ साधना के क्षेत्र में आत्म-सम्मोहन या भावना का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका उपयोग वृत्तियों को खंडित करने के लिए करें। संज्ञा-मुक्त होने का तीसरा उपाय है-केवल कुंभक । इसका अर्थ हैश्वास-संयम । पूरक और रोचक के साथ होने वाला कुंभक इतना उपयोगी नहीं होता जितना केवल कुंभक उपयोगी होता है । इसका प्रयोग जब चाहें तब किया जा सकता है। इससे कोई खतरा नहीं होता। पढ़ते हुए, बात करते हुए, देखते हुए या सुनते हुए जब कभी ध्यान गया तो एक क्षणभर के लिए श्वास को रोक लें, श्वास का संयम करें, कुंभक करें। दस-बीस बार उसे दोहरा दें। कभी क्रोध का आवेश आये, कभी वासना का आवेश आये, कभी भयंकर कल्पना आये, कभी लुभाने वाली बात आये तो तत्काल कुंभक कर लें ) आवेश टल जायेगा। एक बार आवेश को टाल देते हैं तो उसका वेग समाप्त हो जाता है। वेग शून्यता में चलता है। जब नदी के पानी को अनेक स्थानों पर बांध दिया जाता है, फिर उसमें बाढ़ नहीं आ सकती। जिन नदियों में पहले बाढ़ आती थी, उन पर बांध बांध देने से अब उन नदियों के पानी का अधिक उपयोग होने लगा है, क्योंकि उसके वेग को रोक दिया गया है। एक बार हम आवेग के वेग को रोक देते हैं तो उसकी गति स्खलित हो जाती है । स्खलित हो जाने पर उसका वेग समाप्त हो जाता है और वह नष्ट हो जाता है। श्वास-संयम की यह प्रक्रिया वृत्ति-चक्र के प्रतिरोध की उत्तम प्रणाली है। यह अखंड चेतना के अनुभव का मार्ग है शुद्ध चेतना का अनुभव, आत्म-सम्मोहन और कुंभक-इन तीन उपायों की हमने चर्चा की। अब हम कुछ शारीरिक क्रियाओं पर भी विचार करें। हमारे शरीर में ऐसे कुछ स्थान हैं जो हमारे इस कार्य में सहयोगी बनते हैं। वृत्तियों के उभार में भी शरीर सहयोगी बनता है। जैसे दूध की अपनी कोई प्रकृति नहीं है, वैसे शरीर को भी अपनी कोई प्रकृति नहीं है। जैसे कफ प्रकृति वाला आदमी दूध पीता है तो वह दूध कफ़ करता है, पित्त प्रकृति वाले को पित्त और वात प्रकृति वाले को वात, इसी प्रकार कोई संज्ञा या मूर्छा शरीर में उभरती है तो शरीर उस में सहयोगी बन जाता है। यदि संज्ञा या मूर्छा को मिटाने का प्रयत्न होता है तो शरीर उसमें सहयोगी बन जाता है। शरीर की अपनी कोई वृत्तियों का वर्तुल : ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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