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का यही परिणाम है, यही निष्कर्ष है कि यदि हम साधना करना चाहें तो हमें चैतन्य के अनुभव में आना होगा। हम ऐसे क्षण बिताएं जिनमें चैतन्य का अनुभव हो, केवल अपने अस्तित्व का अनुभव हो, राग-द्वेष का अनुभव न हो। कब बिताएं ? आचार के क्षणों में, व्यवहार के क्षणों में। हम कोई भी आचरण करें, किसी के साथ कोई व्यवहार करें, उन क्षणों में हम समता में रहें, समता का अनुभव करें। संवर स्वतः निष्पन्न होगा। __ हम सतत जागृत रहें। मन में या व्यवहार में राग-द्वेष की परिणति होते ही तत्काल उससे लौट आएं और संकल्प-शक्ति को जागृत करें। हमारा ऐसा दृढ़ संकल्प बने कि जिससे भविष्य में राग-द्वेष की परिणति न हो, राग-द्वेषमय क्षण न.बीते । संवर की साधना स्वयं निष्पन्न होगी। यही साधना की पूरी सार्थकता है। तब साधना देशकालातीत साधना बन जाती है। अभी हमारी साधना देशकालातीत नहीं है। हमारी साधनादेशबद्ध और कालबद्ध है। देशबद्ध और कालबद्ध साधना का परिणाम भी तात्कालिक होता है। साधना वह होनी चाहिए जो देश और काल से आबद्ध न हो, उनसे बंधी हुई न हो । आप किसी भी देश में चले जायें, किसी भी काल में चले जायें, किसी भी काल में रहें किंतु चैतन्य के अनुभव की एक ज्योति, एक प्रकाशरेखा जो फूटी है वह विकसित हो, आगे-सेआगे बढ़ती जाए। कभी भी वह बुझे नहीं। वह लो और वह प्रकाशरेखा कभी भी दूर न जाए। इस ओर हमारा प्रयत्न हो।
इससे पूर्व कर्म-बंध के सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की जा चुकी है। अब कर्ममुक्ति के कुछ सूत्र प्रस्तुत कर रहा हूं। कर्ममुक्ति का सबसे बड़ा सूत्र है-संवर और तप । तपस्या के विषय में कुछ सोचें। जिनको खपाना है, जिनको दूर करना है, उनमें पहला तत्त्व है मूर्छा। मूर्छा का सबसे पहला माध्यम है-देहासक्ति । यहां से मूर्छा प्रारंभ होती है। भगवान् महावीर ने तप के बारह सूत्र बतलाए। उनमें पहला है-अनशन । मत बाओ। दूसरा है-ऊनोदरी। कम खाओ। तीसरा है-रस-परित्याग । रसों को छोड़ो। जिहन्द्रिय पर संयम रखो। चौथा है-वृत्तिसंक्षेप । खाने के विविध प्रयोग करो। पांचवां है-कायक्लेश। शरीर को साध लो। इतने कष्ट-सहिष्णु बन जाओ, आसनों के द्वारा इतनी शक्ति पैदा कर लो कि जिससे कोई भी स्थिति आये तो शरीर उसे झेल सके। ये पांच सूत्र देहासक्ति से मुक्त होने के सूत्र हैं।
__ आहार की आसक्ति भी देहासक्ति है। यह देहासक्ति का ही एक परिणाम है । जब ये पांच सूत्र सध जाते हैं तब देहासक्ति टूट जाती है।
जब यह हो जाता है तब प्रतिसंलीनता की बात आती है । यह कर्ममुक्ति का छठा सूत्र है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-इन्द्रियों को अंतर्मुखी बनानn जिस रास्ते से इन्द्रियां बाहर जा रही हैं, उसे बंद कर दो। नया मार्ग खोल दो।
१६२ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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